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________________ ___ 12. दृष्टिवाद : भगवान महावीर के निर्वाण के 170 वर्ष पश्चात् श्रुतकेवली भद्रबाहु हुए। उनके देवलोकगमन के बाद दृष्टिवाद का शनैः शनैः लोप होने लगा और भगवान महावीर के हजारवें निर्वाण वर्ष तक वह पूर्णतः (शब्द रूप से पूर्णतः और अर्थ रूप से अधिकांशतः) लुप्त हो गया। दृष्टिवाद में विपुल ज्ञानराशि थी। चौदह पूर्वो में वर्गीकृत इस आगम के एक एक पूर्व में लाखों करोड़ों श्लोकपरिमाण की सामग्री बताई जाती हैं। आचार्य शीलांक ने सूत्रकृतांग-वृत्ति में पूर्व को अनन्त अर्थ वाला बताया। दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार सम्पूर्ण द्वादशांगी का विच्छेद हो गया; केवल दृष्टिवाद का कुछ शेष रहा, जो षट्खण्डागम के रूप में आज भी विद्यमान है। अंगबाह्य आगम अंगबाह्य श्रुत स्थविरकृत और बिना प्रश्न किये तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित माना जाते हैं। अंगबाह्य आगमों के विभिन्न मान्यताओं और सन्दर्भो के अनुसार विभिन्न भेद मिलते हैं। यहाँ उपांग, मूल और छेद के वर्गीकरण के अनुसार परिचय दिया जा रहा है। बारह उपांग' 1. औपपातिक : अंगों में जो स्थान आचारांग का है वही स्थान उपांगों में औपपातिक का है। यह आगम कथानुयोग प्रधान है। इसमें 1 अध्ययन, 1 उद्देशक, 43 गद्य-सूत्र, 32 पद्य-सूत्र तथा कुल 1167 श्लोक प्रमाण उपलब्ध पाठ है। भाषा, स्थापत्य, संस्कृति और समाज की दृष्टि से भी इस आगम का महत्व है। राजप्रश्नीय : इसमें 1 अध्ययन, 1 उद्देशक, 65 गद्य-सूत्र, तथा कुल 2100 श्लोक प्रमाण उपलब्ध पाठ है। भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमण केशीकुमार और राजा प्रदेशी का महत्वपूर्ण संवाद, स्थापत्य, संगीत, कला, नाटक, दण्ड-नीति आदि अनेक विषय इस आगम में समाविष्ट हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार इस ग्रन्थ का नायक कौशल का इतिहास प्रसिद्ध राजा प्रसेनजित् रहा, जिसे बाद में चलकर प्रदेशी कर दिया गया। जीवाभिगम : द्रव्यानुयोग प्रधान इस उपांग में 1 अध्ययन, 18 उद्देशक, 272 गद्य-सूत्र, 81 पद्य गाथाएँ तथा कुल 4750 श्लोक प्रमाण उपलब्ध पाठ है। जीवाजीव के वर्णन के अतिरिक्त इसमें द्वीप, सागर, रत्न, 2. . 3.
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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