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________________ इसलिए इच्छा-परिमाण करने वाला धर्म से, नीति से धनोपार्जन करता है। इच्छापरिमाण का निष्कर्ष निम्न सात बिन्दुओं में प्रस्तुत किया जा सकता हैं - 1. न गरीबी, न विलासिता का जीवन / 2. धन साधन है, साध्य नहीं। धन मनुष्य के लिए है, मनुष्य धन के लिए नहीं। 3. आवश्यकता की सन्तुष्टि के लिए धनोपार्जन, किन्तु दूसरों को हानि पहुँचाकर ___अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि न हो, इसका जागरूक प्रयत्न / 4. आवश्यकताओं, सुख-सुविधाओं और उनकी सन्तुष्टि के साधनभूत धन . संग्रह की सीमा का निर्धारण। 5. धन के प्रति उपयोगिता के दृष्टिकोण का निर्माण कर संगृहीत धन में अनासक्ति का विकास। 6. धन के सन्तुष्टि गुण को स्वीकार करते हुए आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से उसकी असारता का चिन्तन। 7. विसर्जन की क्षमता का विकास। इच्छा-परिमाण के अन्तर्गत क्षेत्र की मर्यादा भी की जाती है। जिसका व्यापारिक, राजनीतिक और सामरिक दृष्टि से बहुत महत्व है। इच्छाएँ वस्तु और क्षेत्र तक ही सीमित नहीं होती; अपितु पद, प्रतिष्ठा, सत्ता आदि के रूप में भी होती हैं। वस्तु सम्बन्धी इच्छाएँ फिर भी व्यक्ति पूरी कर लेता है, परन्तु पद और प्रतिष्ठा की इच्छाओं का कोई पार नहीं है। समाज और देश का बेहिसाब धन पद और प्रतिष्ठा के लिए खर्च कर दिया जाता है। इच्छाओं का परिसीमन सभी सन्दर्भो में होना चाहिये। अपरिग्रह और विकास अपरिग्रह और सन्तोष का अर्थ यह कतई नहीं है कि व्यक्ति अपने जीवन में आलस्य को प्रोत्साहित करें। अपरिग्रह निरन्तर उद्यमशील रहने की प्रेरणा देता है। वह उत्पादन और अर्जन को बाधित नहीं करता है। वह सम-वितरण और अनासक्ति पर जोर देता है। अपरिग्रही अपने लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी जीता है। अपरिग्रह व्रत की चार शर्ते हैं - स्वावलम्बन, श्रमशीलता, अहिंसा और निपुणता (कार्य-कुशलता)। राष्ट्र के विकास में चारों शर्ते सहयोगी बनती हैं। एक तरफ अनाज के भण्डार भरे हो और दूसरी ओर बड़ी संख्या में लोग भूख और कुपोषण से मर जाय। ऐसा एक तरफा विकास के कारण होता है। ऐसे विकास में मानव (312)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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