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________________ परिच्छेद तीन कषाय-मुक्ति और सम्पन्नता संसार और संसार की समस्याओं का मूल है कर्म और कर्म का मूल है - कषाय। कषाय मानव को पतन के गर्त में गिरा देते हैं और लम्बे समय तक उसे वहीं रखते हैं। दशवैकालिका में कहा गया है - क्रोध, मान, माया व लोभ - ये चारों कषाय जीवन में पाप और सन्ताप बढ़ाते हैं। अपना भला.चाहने वालों को इनका त्याग कर देना चाहिये। क्यों कि क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय को नष्ट करता है, कपट मित्रता का नाश करता है और लोभ सबका नाश कर देता है। आचार्य शिवार्य ने तो यहाँ तक कहा कि वात, पित्त आदि विकारों से मानव इतना उन्मत्त (विक्षिप्त) नहीं होता जितना वह कषायों से होता है। आचार्य भद्रबाहु कहते हैं - ऋण को थोड़ा, घाव को छोट, आग को तनिक और कषायों को अल्प नहीं मानना चाहिये, क्योंकि ये थोड़े ही बहुत हो जाते हैं। जैन परम्परा के आचार पक्ष में कषाय-त्याग का अत्यधिक महत्व रहा। कषाय-त्याग को मुख्य मानने से समाज में धार्मिक अन्धविश्वासों व कर्मकाण्डों पर चोट हुई। आचार्य हरिभद्र ने कहा - किसी पन्थ या वाद में मानव का कल्याण नहीं है, कल्याण तो कषायों को छोडने में हैं। इससे सामाजिक व मानवीय एकता की राह प्रशस्त हुई। चार कषाय 1. क्रोध : प्रत्येक व्यक्ति सम्पन्नता की दिशा में आगे से आगे बढ़ना चाहता है। वह सम्पन्नता महज धन तक सीमित नहीं है। जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यक्तित्व का वैभव प्रकट होना चाहिये। ऐसे बहुआयामी वैभवशाली जीवन के लिए क्रोध का परित्याग मुख्य शर्त है। प्राचीन ग्रन्थ इसिभासियाई' में कहा गया है कि - क्रोध स्वयं को जलाता है, दूसरों को जलाता है। यह धर्म, अर्थ और काम को जलाता है। तीव्र वैर कराने वाला क्रोध जीवन के पतन का कारण है। आचारांग में कहा गया है कि क्रोध आयु को नष्ट करता है। व्यक्ति स्वयं क्रोध नहीं करें, यह एक पक्ष है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि वह दूसरों के क्रोध का निमित्त भी न बने। भगवती आराधना में क्रोध की हानियाँ बताते हुए कहा गया है कि क्रोधग्रस्त मानव का वर्ण नीला पड़ जाता है, वह हतप्रभ हो जाता है तथा उसका सौन्दर्य नष्ट हो जाता है। व्यग्रता और बेचैनी से उसे शीतकाल में भी प्यास लगने (264)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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