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________________ का भी अपमान करता है। भगवान महावीर कहते हैं कि अचित्त वस्तुओं के उपयोग में भी विवेक रखना चाहिये। 9. नमस्कार पुण्य : जैन धर्म का सर्वमान्य मन्त्र नमस्कार है। जीवन की सफलता और सार्थकता अहंकार को परास्त करने में है। भौतिक जीवन की सफलता भी व्यक्ति की नम्रता, भद्रता, ऋजुता, मृदुता, सरलता और सहजता पर निर्भर है। नमस्कार से तो प्रत्यक्ष पुण्य-लाभ होता है। जैसे पैसे से पैसा बढ़ता या बढ़ाया जा सकता है, वैसे ही पुण्य से पुण्य बढ़ता या बढ़ाया जा सकता है। जैसे पैसे का दुरुपयोग पतन का कारण बनता है, वैसे ही पुण्य, यश, वर्चस्व आदि का दुरुपयोग पतन का कारण बनता है। पुण्य एक ऐसी आय है, जिस पर किसी भी युग के किसी भी राज्य या राजा ने कभी कोई कर नहीं लगाया। इसलिए इस कर-मुक्त आय का खूब अर्जन करना चाहिये। जो व्यक्ति इन नौ प्रकार से पुण्यार्जन करता है, वह 42 प्रकार से लाभ प्राप्त करता है। जिससे व्यक्ति सुख, सम्पत्ति, सौभाग्य, बल, यश, सौन्दर्य, कुलीनता, शालीनता, तेजस्विता आदि अनुकूलताएँ प्राप्त करता है। पाप तत्त्व यह कितने रहस्य की बात है कि शुभ और अशुभ कार्यों को आगमग्रन्थों में तत्त्व कहा है। सचमुच, जिन कार्यों के प्रभाव पर प्रायः ध्यान नहीं दिया जाता है; वस्तुतः, वे बहुत प्रभावशाली होते हैं। इसलिये उन्हें तत्व कहकर उनकी ओर ध्यानाकर्षित किया गया है। पाप अठारह बताये हैं। प्रथम पाँच है - हिंसा. झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इनका वर्णन गृहस्थाचार में किया गया। अगले चार है - क्रोध, मान, माया और लोभ। इनका वर्णन कषाय-मुक्ति के अनुच्छेद में किया जायेगा। * दसवाँ है - राग और ग्यारहवाँ - द्वेष। पाप के ये भेद संकेत करते हैं कि अर्थशास्त्रीय नीतियाँ सर्वोदय करने वाली हों। किसी वर्ग और समुदाय विशेष को लाभान्वित करने वाली नीतियों से समता का सपना टूटता है। जो व्यवसायी सभी ग्राहकों के प्रति समान मूल्य और समान व्यवहार रखता है, वह अपनी साख बनाता है। जो व्यक्ति जीवन के इन कार्यों में राग-द्वेष को मन्द करने का अभ्यास बनाता है, वह विश्वसनीय बनता है और आगे की यात्रा सानन्द सम्पन्न करता है। (245)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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