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________________ प्रियपात्र बनें और बना रहें। भगवान महावीर के प्रमुख श्रावक आनन्द के लिए कहा गया है कि उसका घर, परिवार, समाज, व्यवसाय, शासन, प्रशासन आदि सब जगहों पर समादर किया जाता था तथा उसकी राय को तवज्जो दी जाती थी। 30. लज्जाशील : जीवन में कौटुम्बिक व सामाजिक मान मर्यादाओं का ध्यान रखना पड़ता है। श्रावक जहाँ संकोच करना हो, कहाँ संकोच करें और गरिमा बनायें रखें। श्राविकाओं में लज्जा गुण की विशेष अपेक्षा की जाती है। वे लज्जाशीलता को लजित करने वाला वस्त्र-विन्यास नहीं करें। जिससे उनकी स्वयं की अस्मिता और कुल-गौरव पर आँच नहीं आए। 31. दयावान : दया जैनाचार का प्राण है। जैनाचार के लिए आधारभूत सम्यक्दर्शन का एक लक्षण है - अनुकम्पा। दयावान कभी अपने से कमजोर का शोषण नहीं कर सकता। वह जीव-हिंसा से भी बचकर रहता है। 32. सौम्यता : भगवान महावीर ने धर्म के दस लक्षणों में आर्जव (ऋजुता) और मार्दव (मृदुता) को स्थान दिया है। स्वभाव से सरल और मधुर व्यक्ति जीवन में उन्नति करते हैं। सौम्य व्यक्ति अपने व्यावसायिक और गैर-व्यावसायिक सम्बन्धों को मधुर तथा चिरस्थायी बनाते हैं। 33. परोपकारी : परोपकारिता में एहसान नहीं अपितु कर्तव्य भवना मुख्य होनी चाहिये। गृहस्थ यह कामना करता है कि 'बने जहाँ तक इस जीवन में औरों का - उपकार करूँ। आगम ग्रन्थों में परोपकार को पुण्यवर्धन का हेतु बताया गया :. है। परोपकार का सामाजिक-आर्थिक महत्व भी कम नहीं है। 34. षड्रिपु-विजेता : आगमों में मानव के छः आन्तरिक शत्रु बताये गये हैं - .. .काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य (ईर्ष्या)। एक श्रेष्ठ मानव के लिए इन सभी अन्तर्शतुओं पर नियन्त्रण आवश्यक है। 35. इन्द्रिय-विजेता : मार्गानुसारी का यह 35वाँ नियम है। जिन्होंने इन्द्रियों को पूर्ण रूप से जीत लिया, वे जिन हैं और जिन/जिनेश्वर प्रभु के बताये पथ पर चलने वाले जैन कहलाये। इसलिए इन्द्रिय विजय जैनाचार की मुख्य साधना है। जो व्यक्ति व्रतों की ओर अग्रसर होना चाहता है, उसे इन्द्रियों को काबू में रखने का अभ्यास करना पड़ेगा। यह अभ्यास आध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं, सामाजिक और व्यावसायिक दृष्टि से भी महत्व रखता है। जो व्यक्ति षड्रिपुओं (237)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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