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________________ 1. आहार दान : आहार मानव और प्राणी मात्र की प्रथम आवश्यकता है। जो अनंगार है अर्थात जिनके कोई घर नहीं है ऐसे साधुओं व साधु-पुरुषों के आहार पानी की व्यवस्था करना समाज का दायित्व है। भुखमरी और दुष्काल के समय में किया गया आहार दान देश की रक्षा करता है और वह प्रत्यक्ष तौर पर अभय दान का कारण भी बनता है। 2. औषध दान : किसी भी समाज व देश के सतत् विकास के लिए स्वास्थ्य और चिकित्सा की सुदृढ़ व्यवस्थाएँ अत्यन्त जरूरी हैं। भगवान महावीर के अनुयायी युगों से औषधालयों और चिकित्सालयों के लिए अपने धन का विसर्जन करते रहे हैं। व्यक्तिगत और छोटे-छोटे स्तरों पर भी सद्गृहस्थ बीमार की चिकित्सा सेवा करके समाज को बीमार होने से बचाता है। वर्तमान में रक्तदान, अंगदान, नेत्र दान आदि को इसमें गिना जा सकता है। इसका भी अभय दान.से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। 3. ज्ञान दान : अज्ञान सबसे बड़ा कष्ट है। अज्ञान और कुज्ञान से समाज को मुक्त करने के लिए अपने साधनों का संविभाग ज्ञान दान है। ज्ञान पर जैन परम्परा ने अत्यधिक जोर दिया है। आचारांग में ज्ञान को आत्मा का पर्याय बताया गया है। इस दृष्टि से ज्ञान दान का अर्थ बहुत व्यापक हो जाता है। भगवान महावीर के अनुयायियों ने ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए भी ऐतिहासिक कार्य किये हैं। देश-समाज की आर्थिक और सर्वांगीण उन्नति के लिए ज्ञान व शिक्षा अनिवार्य घटक है। किसी को कला व हुनर विशेष में पारंगत बनाना या बनाने की व्यवस्था करना आर्थिक ज्ञान दान है। इससे व्यक्ति जीविकोपार्जन में सक्षम बनता है। 4. अभय दान : आर्य सुधर्मा स्वामी ने भगवान महावीर की स्तुति में अभय दान को सर्वोत्तम बताया। जीवन में अनेक प्रकार के भय होते हैं, उन भयों से प्राणी को मुक्त करना अभयदान है। इसके अन्तर्गत किसी के प्राणों की रक्षा करना, शरणागत की रक्षा करना आदि सम्मिलित हैं। अभय दान से देश की पशु सम्पदा की रक्षा में भी उल्लेखनीय कार्य हुआ है। किसी व्यक्ति के लिए बेरोजगारी अथवा आजीविका छिन जाने का भय हो, उस भय से उसे मुक्त करना भी अभयदान है। एक व्यक्ति के रोजगार से पूरा परिवार चलता है। (217)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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