SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दान बनाम संविभाग 'दानं सम्यग् विभाजनं' - संसाधनों का समुचित विभाजन दान है। गृहस्थ के बारहवें व्रत में उसे साधनों और संसाधनों के संविभाग की सलाह दी गई है। आगम ग्रन्थों में दान की अपेक्षा संविभाग शब्द को समाजशास्त्रीय दृष्टि से अधिक उपयुक्त माना जाता है। ग्रन्थों में एक और शब्द है - प्रतिलाभ।" व्यक्ति तत्कालीन समय और समाज से प्रत्यक्ष तौर पर लाभान्वित होता है। उसमें यह भाव होना चाहिये कि वह भी दूसरों के लिए लाभकारी बनें। सद्गृहस्थ.यह कामना करता है कि उसे अपने संविभाग से प्रतिलाभ मिलें। दान अथवा संविभाग से हानि नहीं, अपितु प्रतिलाभ होता है। नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह अपने साधनों का परार्थ और परमार्थ के लिए संविभाग करें और प्रतिलाभ प्राप्त करें। समाज में सबकी हैसियत समान नहीं होती है। जो किन्हीं कारणों से जीवन विकास में पिछड़ जाते हैं, उनके प्रति समर्थ जनों का यह दायित्व बनता है कि वे अपने धन का संविभाग करें, जिससे सामुदायिक सम्पन्नता के लिए कार्य किया जा सके। संविभाग में संविभागकर्ता के अहंकार के लिए अवकाश नहीं रहता है। यह उसका दायित्व है कि वह जिस देश काल में जी रहा है, उसमें जीने वालों के प्रति अपने फर्ज को भी समझें। सामाजिक आर्थिक समता की स्थापना के लिए संविभाग का महत्व असंदिग्ध है। संविभाग केवल मूर्त वस्तुओं का ही नहीं, अपितु अमूर्त सम्पदा का भी होता है। योग्य व बुद्धिमान व्यक्तियों का फर्ज बनता है कि वे अहंकार-रहित होकर कम योग्य व्यक्तियों को अपनी योग्यता से लाभान्वित करें। दान और अनुग्रह आचार्य उमास्वाति ने दान को अनुग्रह के लिए वस्तु-त्याग के रूप में परिभाषित किया है। जिससे स्वयं का और दूसरों का उपकार हो, उसे अनुग्रह कहते हैं। स्पष्ट है, दान से दूसरों का ही नहीं, स्वयं का भी उपकार होता है। क्या, कब, किसे और किस उद्देश्य से देना, इसका विवेक दाता को अवश्य होना चाहिये। पात्र, वस्तु व समय के विवेक के साथ किये गये सहयोग से सहयोग का महत्व बढ़ जाता है। दान के साथ दानी को अपना स्वत्व, स्वामित्व और अहंत्व का विसर्जन भी करना चाहिये। ऐसा दान पारस्परिक अनुग्रह का कारण बनता है। लोभ-कषाय को मन्द करने और अपरिग्रह-व्रत की आराधना के लिए दान प्रमुख उपादान है। (214)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy