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________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 acca ca CR CR CR ca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0 0 0 0 0 0 0 (3) मद्दलः- यह (मृदंग के आकार का) एक प्राचीन अवनद्ध वाद्य था, जिसे मध्यकालीन / a एवं आधुनिक संगीतज्ञों ने मृदंग का ही पर्याय माना है। किन्तु उनकी मान्यता हृदयगम्य नहीं होती, 0 क्योंकि राजप्रश्नीय सूत्र में मृदंग व मर्दल -इनका पृथक्-पृथक् उल्लेख है। टीकाकार ने भी मर्दल, ce को एक ऐसा वाद्य बताया है जो दोनों ओर से समान मुख वाला होता है। तमिल व तेलगू में मृदंग का " c& एक विशेष रूप 'मद्दल' प्रचलित भी है। दशाश्रुत स्कंध में भी इस वाद्य का उल्लेख है। एक >> मध्यकालीन लेखक ने मर्दल का वर्णन किया है, जिसके अनुसार मर्दल लगभग 40 सेन्टीमीटर , लम्बा तथा बीच में फूला, लकड़ी से बना वाद्य है। इसके एक मुख का व्यास 24 सेन्टीमीटर तथा दूसरे मुख का व्यास लगभग 25 सेन्टीमीटर होता है। दोनों मुखों पर पके चावल में राख मिलाकर लेप " किया जाता है। (4) कडंब (करम्ब)- इस वाद्य का उल्लेख राजप्रश्नीय सूत्र में प्राप्त होता है। इसे उत्तर भारत .. / में खंजरी नाम से जाना जाता है। दक्षिण में यह कंजीरा या गंजीरा, कश्मीर में कडंब तथा महाराष्ट्र में दिमड़ी नाम से भी पुकारते हैं। यह ढफ नामक वाद्य से कुछ छोटा होता है और एक अवनद्ध वाद्य ल है। इस वाद्य में लगभग 30 सेन्टीमीटर व्यास का लकड़ी, पीतल या लोहे का बना एक ढांचा होता है , और यह एक खाल से मढ़ा होता है। यह खाल इतनी खिंची रहती है कि इसको बजाते समय इसे " & ढीला करने के लिए गीले कपड़े से पोंछते रहना पड़ता है। वाद्य अंगुली और हथेली का प्रयोग कर >> बजाया जाता है। खंजरी और ढप में केवल व्यास का ही अंतर उल्लेखनीय नहीं है। खास अंतर यह है है कि खंजरी में पीतल की छोटी-छोटी झांझ की जोड़ियां ढीली लगी होती हैं जो बजाने पर मधुर 8 झंकार उत्पन्न करती है। उपरोक्त खंजरी से छोटी बिना झांझ की खंजरी भी होती है जो लगभग c& वालिस्त भर का फासला रखकर हाथ में पकड़ी जाती है और दूसरे के द्वारा बजायी जाती है। खंजरी , भेड़, बकरी, बैल या भैंस की खाल से बनती है लेकिन कंजीरा और छोटी खंजरी एक किस्म की छिपकली की खाल से बनती है। चूंकि चमड़ा वाद्य को बनाने के दौरान ही ढांचे पर कस कर मढ़ दिया & जाता है और मिलाने की गुंजाइश नहीं होती इसलिए यह वाद्य बारीक संगीत के उपयुक्त नहीं होता। cn यह राजस्थान में कालबेलिया लोगों द्वारा बजाया जाता है। (5) झझल्लरी:-यह वाद्य जैन आगमों (राजप्रश्नीय, स्थानांग, दशाश्रुत स्कन्ध, अनुयोगद्व निशीथ औपपातिक आदि) में उल्लिखित है। इसके स्वरूप के विषय में कुछ विचारभेद है। कुछ इसे , वलयाकार एवं चमड़े से मढा हुआ एक अवनद्ध वाद्य मानते हैं तो कुछ इसे 'जय घंटा' का पर्याय मानकर एक घनवाद्य मानते हैं। अवनद्ध वाद्यों में इसे सामान्यतः 'झांझ' के रूप में पहचाना जाता है " | जो मंजीरे का बड़ा रूप होता है। इसे भाण, चक्रवाद्य, करचक्र आदि नामों से भी पुकारते हैं। अवनद्ध। 28 008R@neK@@@@&000088899
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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