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________________ Acecacecractact 2222222222222233 नियुक्ति-गाथा-16 000000000 प्रत्यक्ष का ही लक्षण उसमें घटित होता है। तात्पर्य यह है कि मनःपर्यय ज्ञान को तो प्रत्यक्ष माना ca गया है, इसे अनुमान से तो इसकी परोक्ष प्रमाण में परिगणना करनी पड़ेगी। अनुमान में परोपदेश , या इन्द्रिय प्रत्यक्ष भी अपेक्षित होता है, जबकि मनःपर्यय ज्ञान में परोपदेश या इन्द्रिय-प्रत्यक्ष , 28 अपेक्षित नहीं होता। आगमिक दृष्टि से प्रत्यक्ष वही होता है जिसमें इन्द्रियादि की अपेक्षा न रखते हुए, ही आत्मा पदार्थों को जानता है, और यह लक्षण मनःपर्यय ज्ञान में घटित होता है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में जो मान्यता प्रमुख आचार्यों द्वारा प्रतिपादित की गई है, उसका &सार इस प्रकार है मनःपर्यवज्ञान का विषय है, मनोद्रव्य, मनोवर्गणा के पुद्गल स्कन्ध। ये पौद्गलिक द्रव्य मन का निर्माण करते हैं। मनःपर्यवज्ञानी उन पुद्गल स्कन्धों का साक्षात्कार करता है। ज्ञानात्मक चित्त को जानने की क्षमता मनःपर्यवज्ञान में नहीं है। ज्ञानात्मक चित्त अमूर्त है जबकि मनःपर्यवज्ञान व मूर्त वस्तु को ही जान सकता है। मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु मनःपर्यवज्ञान का विषय नहीं है। ca चिन्त्यमान वस्तुओं को मन पौद्गलिक स्कन्धों के आधार पर अनुमान से जानता है। मनःपर्यवज्ञान ca के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु का साक्षात्कार नहीं किया जा सकता है- इसी दृष्टि से आ. . जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य (गा. 814) में कहा है दव्वमणोपज्जाएजाणइपासइयतग्गएणते। तेणावभासिए उण जाणइ बज्झेऽणुमाणेणं। आचार्य सिद्धसेनगणी ने चिन्त्यमान विषयवस्तु को और अधिक स्पष्ट किया है। उनका , अभिमत है कि मनःपर्यवज्ञान से चिन्त्यमान अमूर्त वस्तु ही नहीं, स्तम्भ, कुम्भ आदि मूर्त वस्तु भी , नहीं जानी जातीं। उन्हें अनुमान से ही जाना जा सकता है। मनःपर्यवज्ञान से मन के पर्यायों अथवा मनोगत भावों का साक्षात्कार किया जाता है। वे पर्याय अथवा भाव विन्त्यमान विषयवस्तु के आधार. पर बनते हैं। मनःपर्यवज्ञान का मुख्य कार्य विषयवस्तु या अर्थ के निमित्त से होने वाले मन के ce पर्यायों का साक्षात्कार करना है। अर्थ को जानना उसका गौण कार्य है और वह अनुमान के सहयोग " 4 से ही होता है। ca आ. सिद्धसेनगणी ने मनःपर्याय का अर्थ भावमन (ज्ञानात्मक पर्याय) किया है। तात्पर्य की ca दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। चिन्तन करना द्रव्य मन का कार्य नहीं है। चिन्तन के क्षण में मनोवर्गणा के पुद्गल स्कंधों की आकृतियां अथवा पर्याय बनते हैं, वे सब पौद्गलिक होते हैं। भाव मन ज्ञान है, - (r)(r)ce(r)(r)(r)(r) ca(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 289 23.33333333
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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