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________________ cacancescacance គ គ គ គ គ គ គ គ 1 3333333333 नियुक्ति-गाथा-69-70 तीसरे उछाल से वहीं पहुंच जाता है, जहां से चला था)। कुछ आचार्यों की यह व्याख्या है कि / इन दोनों की ही रुचकवर द्वीप तक जाने की सामर्थ्य है। आसीविष (या आशीविष) वे होते हैं जिनके आस्य यानी दाद में विष रहता है। वे दो . 4 तरह के होते हैं- जाति से, और कर्म से। बिच्छू, मेंढक, सर्प व मनुष्य -ये जाति से , (आसीविष) होते हैं। कर्म से आसीविष होते हैं-तिर्यश्च योनि के जीव, मनुष्य और सहसार , पर्यन्त देव / ये तपश्चरण के अनुष्ठान से या किसी अन्य गुण से (कर्मज) आसीविष होते हैं, a इसी तरह, (सहस्रार पर्यन्त) देव भी वैसी शक्ति वाले होते हैं, अर्थात् वे शाप देकर प्राण नाशक होते हैं। केवली (ऋद्धिधारी के रूप में) प्रसिद्ध ही हैं। मनोज्ञानी से यहां विपुलमति a मनःपर्याय ज्ञानधारी का ग्रहण किया जाता है। पूर्व साहित्य के धारक, अर्थात् चौदह पूर्वो ca के धारक 'पूर्वधर' कहलाते हैं। तीर्थंकर से तात्पर्य है- अशोक वृक्ष आदि आठ महाप्रतिहार्य व स्वरूप पूजनीय स्थिति को जो प्राप्त करते हैं, वे अर्हन्त देव। चौदह रत्नों के स्वामी, भरत क्षेत्र के छः खण्डों के शासक चक्रवर्ती होते हैं। बलदेव प्रसिद्ध ही हैं। 'वासुदेव' से तात्पर्य है- सात रत्नों के स्वामी एवं अर्धभरत क्षेत्र के शासकाये चारण आदि सभी विशेष प्रकार की लब्धियां ल हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ Iro विशेषार्थ भगवती (8/2) में दस लब्धियों का निरूपण प्राप्त है। यहां भी विविध ऋद्धियों-लब्धियों का यहां निर्देश किया गया है। लब्धि का अर्थ है- जो अतिशय जो कर्मों के क्षय, क्षयोपशम आदि से उत्पन्न होती हैं। साधक तपश्चरण जो करता है, उसका उद्देश्य कर्मनिर्जरा व मोक्ष प्राप्त करना ही होता है, किन्तु आनुषङ्गिक रूप से उसे विशिष्ट सिद्धियां प्राप्त हो ही जाती हैं। वह इनके प्रति आसक्त नहीं न होता, साधना के परम लक्ष्य मोक्ष की ओर ही अग्रसर रहता है। वह मूढतावश इन सिद्धियों का ce प्रदर्शन या प्रयोग नहीं करता। & आमर्ष का अर्थ स्पर्श होता है। लब्धिधारी अपने किसी भी अंग से किसी को छू देता है तो " रोगादि दूर हो जाते हैं। ऐसी लब्धि पूरे शरीर में या किसी एक भाग में भी उत्पन्न हो सकती है। . a 'विपुड्' यानी मूत्र और विष्ठा / कुछ आचार्य इसमें दो 'पद' मानते हैं- विट् विष्ठा, प्र-प्रसवण, मूत्र , अर्थात् विपुड्= विष्ठा व मूत्र / श्लेष्म यानी कफ, बलगम, जिसका प्राकृत रूप 'खेल' शब्द है। जल्ल , यानी शरीर का मैल / लब्धिधारी के ये सभी सुगन्धित हो जाते हैं, और इन द्रव्यों में रोग-शांति की 33333333333333333333 / 74477777777777777777777777777777777777777777 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 277
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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