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________________ | Maamanner 333333333333333333333333333332222222222222222 नियुक्ति-गाथा-56 तरह, अर्थात् आनुगामुक ही अवधिज्ञान देवों को भी होता है। देव वे होते हैं जो देवनयुक्त होते ca हैं (दिव्य क्रीड़ा आदि करते हैं)। तथा जो स्थिर प्रदीप की तरह (ज्ञाता का) अनुगमन नहीं है a करता, वह अननुगामुक अवधिज्ञान होता है। मिश्र अवधिज्ञान से तात्पर्य है- एकदेश में " * अनुगामी, जैसे देशान्तर जाते हुए व्यक्ति की (मार्ग में) एक आंख फूट जाय, उसी तरह . 4 (कुछ दूर तक), अनुगमन करने वाला अवधिज्ञान 'मिश्र' होता है। 'च' शब्द 'समुच्चय' अर्थ & को व्यक्त कर रहा है। मनुष्यों व तिर्यञ्चों में जो अवधिज्ञान होता है, वह उक्त प्रकार से तीनों प्रकार का (आनुगामुक, अननुगामुक व मिश्र) होता है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ |56 // विशेषार्थ आनुगामिक का शाब्दिक अर्थ है- अनुगमनशील। यह अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न ल होता है, उस क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी विद्यमान रहता है। तत्त्वार्थभाष्य में इसे सूर्य के . प्रकाश और घट की पाकजनित रक्तता से समझाया गया है। इस अवधिज्ञान में आत्मप्रदेशों की विशिष्ट विशुद्धि होती है। चूर्णिकार ने इसे नेत्र के दृष्टांत से समझाया है। जैसे नेत्र मनुष्य के हर क्षेत्र , में साथ रहता है, वैसे ही आनुगामिक अवधिज्ञान हर क्षेत्र में साथ रहता है मी-एक क्षेत्र में उत्पन्न होकर अन्य क्षेत्र में विनष्ट नहीं होता। 2. भवानुगामी- जो अवधिज्ञान वर्तमान भव में उत्पन्न होकर, अन्य भव में जीव के साथ जाता है। ज्ञान परभविक होता है, इसलिए आनुगामिक का भवानुगामी विकल्प बहुत सार्थक है। 3. क्षेत्रभवानुगामी- यह संयोगजनित विकल्प है। अननुगामुक अवधिज्ञान की स्थिति रास्ते में जल रहे लैम्पपोस्ट की तरह होती है। उसके 90 पास में तो प्रकाश की अधिकता रहती है, वहां से आगे बढ़ जाने पर प्रकाश समाप्त हो जाता है। मिश्र अवधिज्ञान उस क्षेत्र की तरह है, जो नियत काल तक उपयोगी होकर नष्ट हो जाता है, CM अर्थात् वह कुछ समय, कुछ क्षेत्र के लिए तो सहायक है, बाद में, आगे के क्षेत्र के लिए अनुगामी नहीं होता, साथ छोड़ देता है। - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ROR@@c@98 245
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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