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________________ 90909002020009 28822222222222333 acreecenecace नियुक्ति गाथा-44 नवक्तव्यम्, 'रूवगयं लभइ सलं' इत्यस्य वक्ष्यमाणत्वादिति।अत्रोच्यते, न सूक्ष्मं पश्यतीति नियमतो बादरमपि द्रष्टव्यम्, बादरं वा पश्यता सूक्ष्ममिति, यस्मादुत्पत्तौ अगुरुलघु पश्यन्नपि " न गुरुलघु उपलभते, घटादि वा अतिस्थूरमपि। तथा मनोद्रव्यविदस्तेष्वेव दर्शनं नान्येष्वतिस्थूरेष्वपि, एवं विज्ञानविषयवैचित्र्यसंभवे सति संशयापनोदार्थमेकप्रदेशावगाहिग्रहणे सत्यपिशेषविशेषोपदर्शनमदोषायैवेति। अथवा एकप्रदेशावगाहिग्रहणात् परमाण्वादिग्रहणं कार्मणं यावत्, तदुत्तरेषां चागुरुलघ्वभिधानात् / चशब्दात् गुरुलघूनां चौदारिकादीनामित्येवं सर्वपुद्गलविशेषविषयत्वमाविष्कृतं भवति। तथा चास्यैव नियमार्थं 'रूपगतं लभते सर्वम्' इत्येतद् वक्ष्यमाणलक्षणमदुष्टमेवेति, एतदेव हि सर्वं रूपगतम्, नान्यद् इति, अलं प्रसङ्गेनेति , गाथार्थः // 44 // (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) एकप्रदेशावगाढ़ तो अत्यन्त सूक्ष्म होता है, उसे जब अवधि का ज्ञेय बता दिया गया तो फिर स्वतः कार्मण शरीर का भी देखना बोधगम्य हो ही 4 जाता है, अतः अलग से कार्मण शरीर का कथन व्यर्थ है। दूसरी बात, 'एकप्रदेशावगाढ़' इस ca पद को भी कहने की जरूरत नहीं, क्योंकि आगे (45वीं गाथा में) 'रूपगत सभी (सभी रूपी a द्रव्यों) को देखता है' यह कहा ही जाने वाला है। इस (शंका-) का उत्तर दे रहे हैं- ऐसा कोई 7 नियम नहीं कि जो सूक्ष्म को देखे, वह बादर (स्थूल) को भी देख ले, या जो स्थूल को देखे, , वह सूक्ष्म भी देख ले, क्योंकि उत्पत्ति-समय में अवधिज्ञान अगुरुलघु को देखता हुआ भी , गुरुलघु को नहीं देखता, घट आदि अतिस्थूल (व गुरुलघु) पदार्थों को भी नहीं देखता। इसी तरह मनःपर्यायज्ञानी मनोद्रव्य जैसे सूक्ष्म को ही देखता है, अन्य (घटादि) अतिस्थूल पदार्थों a को नहीं देखता। इस प्रकार, जब ज्ञान के विषय की विचित्रता सम्भव है, तब एक प्रदेशावगाढ़ a रूप में कार्मण शरीर का ग्रहण सम्भव होने पर भी, संशय को दूर करने हेतु (कार्मण शरीर रूपी) अवशिष्ट द्रव्य का यहां जो कथन किया गया है, उसमें भी दोष नहीं है। अथवा 'एकप्रदेशावगाही' पद से परमाणु से लेकर कार्मण वर्गणा के पुद्गलों तक . & का ग्रहण है, कार्मण-वर्गणा की उत्तरवर्ती ध्रुववर्गणा आदि (से लेकर अचित महास्कन्धों , तक) का ग्रहण 'अगुरुलघु' पद से किया गया है। 'च' शब्द से गुरुलघु औदारिक आदि . वर्गणाएं (अर्थात् वैक्रिय, आहारक, तैजस भी) गृहीत हैं, इस प्रकार (परम) अवधिज्ञान का . | विषय समस्त पुद्गल है- यह निरूपित होता है। आगे 'समस्त रूपगत को देखता है' यह - 80screece@@@@cr890090888900 2222222 221
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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