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________________ 3333333333333 23233222222222222333333333333333 -RacecaRacece नियुक्ति गाथा-39-40 202020009 स्पर्शों के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित होता है। इस प्रकार यह (उक्त अचित्त ca महास्कन्ध सर्वोत्कृष्टप्रदेशी स्कन्ध के) समान ही है। (अन्तर यह है कि) सर्वोत्कृष्टप्रदेशी >> स्कन्ध को तो अष्टस्पर्शी कहा गया है, जब कि यह तो चतुःस्पर्शी है। इसलिए इससे पृथक्, 4 अन्य महास्कन्ध भी विद्यमान हैं- ऐसा मानना चाहिए। अब अधिक कुछ कहने की अपेक्षा नहीं रह गई है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ 40 // विशेषार्थ प्रस्तुत प्रकरण में विविध द्रव्य-वर्गणाओं की अवस्थिति का निरूपण किया गया है। समान द्रव्यों का वर्ग, या उनकी राशि को 'वर्गणा' कहा जाता है। इन्हें विविध वर्गों में विभाजित करने से 4 तत्त्व-जिज्ञासु के लिए कहीं भ्रम जैसी स्थिति नहीं होती। इस सम्बन्ध में कुविकर्ण (या कुचिकर्ण) " a नामक धनपति का दृष्टान्त प्रस्तुत किया गया है। द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव -इन चार दृष्टियों से , वर्गणाएं चार प्रकार की होती हैं। पहले औदारिकशरीर द्वारा ग्रहणयोग्य न होने वाली वर्गणाएं हैं। जिनमें एकप्रदेशी से लेकर संख्यात-असंख्यात-अनन्तप्रदेशी द्रव्यों की अनन्त वर्गणाएं समाहित हैं। " ce इनके बाद औदारिकशरीर द्वारा ग्रहणयोग्य वर्गणाएं हैं, उनमें भी एकप्रदेशी से लेकर अनन्तप्रदेशी , तक अनन्त हैं। इनके बाद, पुनः औदारिकशरीर द्वारा ग्रहण-योग्य न होने वाली वर्गणाएं हैं, जो ( वैक्रियशरीर द्वारा भी ग्रहणयोग्य नहीं होतीं। इनके बाद, वैक्रियशरीर द्वारा ग्रहणयोग्य वर्गणाएं हैं, " << जो एक-एक प्रदेश-वृद्धि के साथ वृद्धिगत होती हुई अनन्त होती हैं। इनके बाद वैक्रिय शरीर के 4 ग्रहण-अयोग्य वर्गणाएं है, इनके बाद पुनः वैक्रिय शरीर के ग्रहणयोग्य वर्गणाएं हैं। इस प्रकार से , तैजस शरीर तक क्रमशः व भाषा आदि से सम्बन्धित -ग्रहण-अयोग्य, ग्रहणयोग्य, ग्रहण-अयोग्यca इस क्रम से तीन-तीन वर्गणाएं हैं। a दूसरी (40वीं) गाथा के व्याख्यान में कार्मण वर्गणाओं का निरूपण है। इन्हीं कार्मण " 4 वर्गणाओं में ध्रुव, अधुव, शून्यान्तर, अशून्यान्तर, और चार ध्रुवान्तर व चार तनु-वर्गणाओं का निर्देश >> है। इनके बाद मिश्रस्कन्ध, और ठीक उसी के बाद अचित्त महास्कन्ध की स्थिति बताई गई है। यहां यह ज्ञातव्य है कि उत्कृष्ट अवगाहना वाला अनन्तप्रदेशी स्कन्ध सर्वलोकव्यापी होने की क्षमता रखता है। वह या तो अचित महास्कब्ध होता है या केवली समुद्घात की स्थिति में कर्मस्कन्ध ca (सचित्त) हो सकता है। इन दोनों का काल दण्ड, कपाट, प्रतर और अन्तर-पूरण रूप चार समयों का " होता है। इसलिए इनकी स्थिति समान मानी गई है। प्रस्तुत प्रकरण में जो अचित्त महास्कन्ध का , निरूपण है, उसमें 'अचित्त' यह विशेषण दिया गया है, ताकि केवलीसमुद्घात वाले सचित्त कर्मस्कन्ध का ग्रहण नहीं हो सके। (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)080808938211 /
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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