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________________ cacacacacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 222222222233333333333333333333333333333333333 (वृत्ति-हिन्दी-) मूक, अर्थात् मूक होकर श्रवण करे। तात्पर्य यह है कि प्रथमतः a श्रवण के समय संयत रूप से मूक यानी विना बोले (बैठे या खड़ा) रहे। दूसरी विधि यह है . कि (श्रवण के मध्य, या अन्त में, जहां अपेक्षित हो) हुंकारा भी भरे अर्थात् गुरु-वन्दन करे / (हुंकारे के रूप में गुरु के प्रति वन्दनीय भाव व्यक्त करना चाहिए)। तीसरी विधि यह है कि , 4 बाढंकार अर्थात् (जैसा आपने कहा,) ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है (अर्थात् यही यथार्थ है मुझे & अच्छी तरह समझ में आ गया है-) ऐसा कथन करे। चौथी विधि यह है कि जब पढे हुए पहले व बाद के सूत्र का अभिप्राय ज्ञात हो जाय, तब धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा प्रतिप्रश्न भी करे " कि यह कैसे है? पांचवी विधि में मीमांसा (श्रद्धा के साथ विचार, चिन्तन, मनन) करे। , मीमांसा का (व्युत्पत्ति-लभ्य) अर्थ है- मान-सम्बन्धी जिज्ञासा, अर्थात् 'प्रमाणता' की जिज्ञासा / इसके बाद, छठी विधि यह है कि जो श्रवण किया है, उसमें उत्तरोत्तर गुण-वृद्धि, पारंगत होने की स्थिति प्राप्त की जाय / सातवीं विधि में इस (ज्ञान) की सम्पन्नता होती है। ca तात्पर्य यह है कि सातवें क्रम में वह स्थिति प्राप्त होती है कि विनीत श्रवणकर्ता शिष्य गुरु के . ca जैसा अनुभाषण (अनुसारी कथन) करने योग्य हो ही जाता है। यह गाथा अर्थ पूर्ण हुआ 23 | " विशेषार्थ बुद्धि के आठ गुणों के निरूपण तथा श्रवण-विधि के निरूपण की प्रस्तुत गाथाएं नन्दी सूत्र " ca में भी प्राप्त हैं। यहां शास्त्रकार द्वारा प्रतिपादित श्रवणविधि का सार यह है कि शिष्य मौन रहकर सुने, फिर हुंकार- 'जी हां' ऐसा कहे। उसके बाद बाढंकार अर्थात् 'यह ऐसे ही है जैसा गुरुदेव 4 फरमाते हैं। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक माने। इस अभिव्यक्ति के पीछे भारतीय संस्कृति छिपी हुई है। ca भारतीय संस्कृति विनम्रता की संस्कृति है। उसके आधार पर गुरु और शिष्य के सम्बन्धों की परम्परा स्थापित हुई है। उसमें एक सम्बन्ध है- जिज्ञासा और समाधान / शिष्य जिज्ञासा करता है और गुरु उसका समाधान देता है। समाधान के समय गुरु के मन में शिष्य के ज्ञान-वृद्धि की भावना 4 रहती है। समाधान के पश्चात् शिष्य का मन आनन्द-पुलकित और भाव-विभोर हो उठता है। वह " सहज ही कृतज्ञता के स्वर में बोल उठता है- "भंते! आपने मुझे नया आलोक दिया है, नई दृष्टि दी है है। आपने जो कहा, वह बिल्कुल सही है।" यह कृतज्ञता की अभिव्यक्ति एक नई प्रेरणा को संजीवित 1 ce करती है। गुरु के मन में शिष्य को और अधिक ज्ञान देने की भावना पल्लवित हो जाती है। इस " प्रकार यह अहोभाव ज्ञान की परम्परा के चिरजीवी होने का सूत्र बन जाता है। उक्त बाढंकार के बाद, 27 अगर शंका हो तो पूछे कि- “यह किस प्रकार है?" फिर मीमांसा करे अर्थात् विचार-विमर्श करे।तब " उत्तरोत्तर गुण-प्रसंग से शिष्य पारगामी हो जाता है। तत्पश्चात् वह चिन्तन-मनन आदि के बाद - 166(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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