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________________ cacacacacace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 090090900 -323233333333333333333333333333333333333333333 / है (इस प्रकार, जघन्य अन्तर काल-अन्तर्मुहूर्त है)। यदि (तीर्थंकरादि के प्रति की गई) | c. आशातना की अधिकता हो तो उसके कारण सम्यक्त्व-च्युति होगी तो 'अपार्द्धचुद्गलपरावर्त' a (कुछ कम अर्घपुद्गलपरावर्त-काल) उत्कृष्ट अन्तर काल होता है। कहा भी है "तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर एवं महर्द्धिक (आमडैषधिलब्धि आदि के . धारक) की बहुलतया (अधिकाधिक) आशातना करने से अनन्त संसार की स्थिति (सुदृढ़), होती है।" a नाना जीवों की अपेक्षा से 'अन्तर' काल होता ही नहीं (अर्थात् सर्वदा किसी न किसी जीव में आभिनिबोधिक ज्ञान होता ही है)। a विशेषार्थ कोई जीव सम्यक्त्व सहित मतिज्ञाज को प्राप्त कर, बाद में उससे च्युत होकर मिथ्यात्व में रहे, और पुनः सम्यक्त्वसहित मतिज्ञान को प्राप्त करे तो मध्य का समय 'प्राप्ति-विरह-काल' या 64 'अन्तर' कहा जाता है, वह समय जघन्यतया (कम से कम) अन्तर्मुहूर्त होता है। सम्यक्त्व का प्रतिपतन हुआ और अन्तर्मुहूर्त के बाद फिर सम्यक्त्व प्राप्त हो गया, इस अपेक्षा से उसकी जघन्य a स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है। सम्यक्त्व का प्रतिपतन होने पर जीव वनस्पति आदि में चला जाता है। & वहां अनन्त अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी तक रहकर वहां से बाहर आकर पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करता है& इसकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति अपार्द्ध पुद्गल परावर्त कही गई है। यह उत्कृष्ट काल जो होता है, वह 6 प्रायः तीर्थंकर, गुरु, जिनवाणी आदि की 'आशातना' (अपमान, अवज्ञा, तिरस्कार आदि) के कारण & होता है। उक्त उत्कृष्ट काल के बाद नियत रूप में पुनः सम्यक्त्वयुक्त आभिनिबोधिक ज्ञान का लाभ होगा ही। यह कथन एक जीव की अपेक्षा से है। नाना जीवों की अपेक्षा से तो कोई अन्तर (विरह , काल) होता ही नहीं, क्योंकि सम्यक्त्वयुक्त आभिनिबोधिकज्ञानी तो सर्वदा होते ही हैं। अपार्द्ध-पुद्गलपरावर्त-अपार्द्धपुद्गलपरावर्त (या देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त) का काल 8 अनन्त उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी के समान होता है। पुद्गल परावर्त के चार भेद हैं- द्रव्य, क्षेत्र, काल ca व भाव -इस प्रकार चार प्रकार का कहा है। यहां क्षेत्र पुद्गल परावर्त अभीष्ट है। __ जितने काल में एक जीव समस्त लोक में रहने वाले समस्त परमाणुओं को औदारिक शरीर & आदि सात वर्गणा रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है, उतने काल को 'बादर द्रव्य-पुद्गल परावर्त' कहते " हैं और जितने काल में समस्त परमाणुओं को औदारिक शरीर आदि सात वर्गणाओं में से किसी एक | वर्गणा रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है, उतने काल को 'सूक्ष्म द्रव्यपुद्गल परावर्त' कहते हैं। - 136(r) (r)(r)08 Rep@R(r)08 R@9828CR(r)908 -88888888888888888888888888888888888888888888
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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