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________________ - 222222222222222222222222222222222222222222222 cacacacacacea श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 क्षेत्र-पल्योपम दो प्रकार का है- व्यावहारिक एवं सूक्ष्म / उपर्युक्त विवेचन व्यावहारिक क्षेत्र& पल्योपम का है। सूक्ष्म क्षेत्र-पल्योपम इस प्रकार है- कुंए में भरे यौगलिक के केश-खंडों से स्पृष्ट तथा " & अस्पृष्ट सभी आकाश-प्रदेशों में से एक-एक समय में एक-एक प्रदेश निकालने की यदि कल्पना की / & जाय तथा यों निकालते-निकालते जितने काल में वह कुंआ समग्र आकाश-प्रदेशों से रिक्त हो जाय, , a वह काल परिमाण सूक्ष्म-क्षेत्र-पल्योपम है। इसका भी काल-परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी है। व्यावहारिक क्षेत्र-पल्योपम की अपेक्षा इसका काल असंख्यात गुना अधिक होता है। नरकों में सम्यग्दृष्टि- सम्यक्त्व-लाभ करने से पूर्व नरकायु बांध ली गई हो तभी सम्यक्त्वी नरक में जाता है। सम्यक्त्व का विराधक जीव छठी पृथ्वी (के छठे नरक) तक सम्यक्त्व के साथ जाता है है- यह सैद्धान्तिक (आगमिक) मत है, किन्तु कर्मग्रन्थ के अनुसार तिर्यञ्च व मनुष्य क्षायोपशमिक , 4 सम्यक्त्व को छोड़कर ही नरक में जाता है। जहां तक सप्तम पृथ्वी (के सप्तम नरक) में जाने की बात ल है, आगमिक व कर्मग्रन्थ -दोनों के अनुसार, सम्यक्त्व से च्युत होकर ही जाना सम्भव है, सम्यक्त्व सहित का नहीं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) आह-अधः सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यग्दर्शनलाभस्य प्रतिपादितत्वात् आगच्छतः a पञ्चसप्तभागाधिकक्षेत्रसंभव इति। अत्रोच्यते, एतदप्ययुक्तम् , सप्तमनरकात् व सम्यग्दृष्टरागमनस्याप्यभावात्।कथम्?,यस्मात् तत उद्धृतास्तिर्यक्ष्वेवागच्छन्तीति प्रतिपादितम्, ca अमरनारकाश्च सम्यग्दृष्टयो मनुष्येष्वेव, इत्यलं प्रसङ्गेन।प्रकृतं प्रस्तुमः। ___(शंका-) नीचे सप्तमं पृथ्वी के नरक में भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति प्रतिपादित की गई " 4 है, अतः वहां से आते हुए (जीव का कथन करें तो लोक के) सात भागों में से पांच भागों से - भी अधिक क्षेत्र का होना सम्भव है (अर्थात् अधिक क्षेत्र का होना सम्भव क्यों नहीं माना , गया?) इसका समाधान यह है -आपका उक्त मत युक्तियुक्त (आगमसम्मत) नहीं है। , क्योंकि वहां (सप्तम पृथ्वी) से निकल कर जीव तिर्यंचों में ही जाते हैं- यह प्रतिपादित किया , गया है जबकि सम्यग्दृष्टि देव या नारकी मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं (अर्थात् यदि सप्तम , & पृथ्वी में सम्यग्दृष्टि का आगमन होता तो तिर्यंचों में उसका जाना क्यों कहा जाता?), अतः " अधिक कहना अब अपेक्षित नहीं है। अब प्रकृत विषय पर आ रहे हैं। - 132 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)ca@@@
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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