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________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 -caca ca ca cace c& श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) nnnnnnn है। इस प्रवृत्ति-निवृत्तिकारी ज्ञान को हेतुवादोपदेशकी संज्ञा कहते हैं। इस दृष्टिकोण से द्वीन्द्रिय आदि ce चार त्रस संज्ञी है और पांच स्थावर असंज्ञी। (3) दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञा- इस विभाग में इतना विकास विवक्षित है कि जिससे सुदीर्घ भूतकाल में अनुभव किये हुए विषयों का स्मरण और उस स्मरण द्वारा वर्तमान काल के कर्तव्यों का . निश्चय किया जाता है। यह कार्य विशिष्ट मन की सहायता से होता है। इस ज्ञान को दीर्घकालोपदेशकी 2 a संज्ञा कहते हैं। दीर्घकालोपदेशकी संज्ञा के फलस्वरूप सदर्थ को विचारने की बुद्धि, निश्चयात्मक & विचारणा, अन्वय धर्म का अन्वेषण, व्यतिरेक धर्म स्वरूप का पर्यालोचन तथा यह कार्य कैसे हुआ, , वर्तमान में कैसे हो रहा है और भविष्य में कैसे होगा? इस प्रकार के विचार-विमर्श से वस्तु के / व स्वरूप को अधिगत करने की क्षमता प्राप्त होती है।देव; नारक और गर्भज मनुष्य ये दीर्घकालोपदेशकी & संज्ञा वाले हैं। (4) दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञी- इस विभाग में विशिष्ट श्रुतज्ञान विवक्षित है। यह ज्ञान इतना " & शुद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टि जीवों के सिवाय अन्य जीवों में यह सम्भव नहीं है। इस विशिष्ट विशुद्ध ज्ञान को दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा कहते हैं। उक्त चार विभागों में जीवों का वर्गीकरण करके शास्त्रों में जहां कहीं भी संज्ञी और असंज्ञी का उल्लेख किया है, वहां ओघ और हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाले जीवों को असंज्ञी तथा दीर्घकालोपदेशिकी स और दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा वालों को संज्ञी कहा गया है। इस प्रकार की अपेक्षा से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों को असंज्ञी है और पंचेन्द्रिय जीवों को संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार का कहा गया है। श्वेताम्बर ग्रन्थों की तरह " संज्ञी-असंज्ञी का विचार दिगम्बर ग्रन्थों में भी किया गया है। लेकिन उसमें कुछ अन्तर है। उसमें गर्भज तिर्यंचों को संज्ञी मात्र न मानकर संज्ञी-असंज्ञी उभय रूप माना है। .. श्वेताम्बर ग्रन्थों में जो हेतुवादोपदेशिकी, दीर्घकालिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी -ये तीन संज्ञा के भेद माने गये हैं, उनका विचार दिगम्बर ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं होता है। भव्य-वे जीव होते हैं जो मोक्ष प्राप्त करते हैं या पाने की योग्यता रखते हैं, अथवा जिनमें सम्यग्दर्शनादि भाव प्रकट होने की योग्यता होती है। अभव्य वे हैं जो अनादि तथाविध पारिणामिक ca भाव के कारण किसी भी समय मोक्ष पाने की योग्यता नहीं रखते। भव्य जीवों के कई प्रकार हैंa आसन्नभव्य, दूरभव्य और जाति भव्य / जो निकट भविष्य में मोक्ष प्राप्त करेंगे, वे हैं- आसन्न भव्य। 1 जो बहुत काल के बाद मोक्षप्राप्त करेंगे, वे हैं- दूर भव्य। किन्तु मोक्ष की योग्यता रखते हुए भी, -333333333333333333888888888888888888888888883 128 (r)(r)(r)(r)(r)Recen@cR900000000
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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