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________________ 222222223333333333333333333333333333333333333 -acacace cacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2900 0000(सम्यक्त्व-प्रच्युति) नहीं हो पाएगा। विद्यमान की ही पुनः कार्यरुप में परिणति हो तो कार्य करने की & क्रिया निष्फल कही जाएगी, क्योंकि कार्य तो पहले से ही विद्यमान था, क्रिया ने फिर क्या किया? क्रियाकाल व निष्ठाकाल (कार्य-उत्पत्तिसमय)-इन दोनों को अभिन्न मानने वाले निश्चयनय , Ma के विरोध में व्यवहार नय का कहना है कि क्रिया-काल व निष्ठा-काल में भिन्नता ही दृष्टिगोचर होती। है, क्योंकि क्रिया प्रारम्भ करते ही घट उत्पन्न नहीं हो जाता, अपितु मिट्टी लाना, उसमें पानी मिलाना, & पिण्ड बनाना, चाक पर चढ़ाना आदि दीर्घकालीन क्रिया के बाद, उसकी समाप्ति पर ही, 'घट’ उत्पन्न " होता है, इससे पहले 'घट' कहीं (उनपूर्ववर्ती क्रियाओं के मध्य) उपलब्ध नहीं होता। इसलिए प्रस्तुत , ज्ञान (सम्यक्त्व) की प्राप्ति के प्रसंग में यह निष्कर्ष निकलता है कि गुरु-सन्निधि में उपदेश-श्रवण- . चिन्तन-मनन आदि (सम्यक्त्व-उपादक) क्रियाओं के समय आभिनिबोधिक ज्ञान (सम्यक्त्व) नहीं ca होता, अपितु अन्त में (निष्ठाकाल में) वह उत्पन्न होता है। अतः मिथ्यादृष्टि व अज्ञानी ही सम्यक्त्व* ज्ञान प्रतिपन्न' होता है, न कि सम्यग्दृष्टि-ज्ञानी। ce निश्चयनय सांख्य दर्शन के सत्कार्यवाद का समर्थन करता है। सत्कार्यवाद के अनुसार " कारण व कार्य एक ही वस्तु तत्त्व की दो अवस्थाएं हैं। कारण अपने कार्य का अव्यक्त रूप है तो कार्य , अपने कारण का व्यक्त रूप। वृक्ष रूप कार्य बीज रूप कारण में विद्यमान ही रहता है, किन्तु, अव्यक्त रूप से ही रहता है। उपयुक्त सामग्री मिलने पर वह वृक्ष रूप में व्यक्त हो जाता है। इस प्रकार 'कार्य' & का सदा सद्भाव है। हां, उसके व्यक्त रूप को व्यवहार में कार्य की उत्पत्ति' कह देते हैं, वस्तुतः वहां >> & अव्यक्त रूप में सत् कार्य ही व्यक्त होता है। उक्त सत्कार्यवादी मान्यता के अनुरूप ही निश्चय नय' का , यहां कथन किया गया है। निश्चय नय के अनुसार सत् की ही उत्पत्ति होती है, (सर्वथा) असत् की / & नहीं।आकाश-कुसुम आदि की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि वे सर्वथा असत् पदार्थ हैं। यदि असत् की , & भी उत्पत्ति हो तो आकाश कुसुम और गधे की सींग जैसे असत् पदार्थ की भी उत्पत्ति होनी चाहिए। " ca कार्य-विशेष की उत्पत्ति के प्रसङ्ग में जो क्रियाएं की जाती हैं, वे प्रतिसमय भिन्न-भिन्न होती हैं, उन उनका भिन्न-भिन्न कुछ न कुछ फल विशेष प्रकट होता है, किन्तु पूर्ण कार्य (घट) की उत्पत्ति (अभिव्यक्ति) चरम-क्रिया काल में होती है। घट की उत्पत्ति के पहले जितनी क्रियाएं हैं, वे प्रतिसमय & भिन्न-भिन्न हैं, और उन सबका उद्देश्य घट-उत्पत्ति नहीं, अपितु घट-उत्पत्ति के अनुकूल विविध a स्थितियों का निर्माण है जिनका प्रत्यक्ष मिट्टी की विविध परिणतियों के रूप में भिन्न-भिन्न रूप से , होता ही है। इस दृष्टि से वे क्रियाएं निष्फल नहीं कही जा सकतीं। उन क्रियाओं में जो चरम क्रिया है, . र वह घट को उत्पन्न करती है, अतः वह भी सार्थक है ही। इस तरह क्रियाकाल व निष्ठाकाल -इन दोनों की अभिन्नता में कोई असंगति नहीं है, क्योंकि प्रत्येक क्षणिक क्रिया अपने द्वारा उत्पन्न विशिष्ट कार्य - 116 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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