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________________ 333333333333333333333333333333333333333333333 -acca cace cace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 | हैं। लेकिन श्वेताम्बर साहित्य में करण शब्द से 'शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियां' इतना अर्थ किया हुआ मिलता है। अतः लब्धि-अपर्याप्त वे जीव कहलाते हैं जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मर , जाते हैं किन्तु करण-अपर्याप्त के विषय में यह बात नहीं है। वे पर्याप्त नामकर्म के उदय वाले भी होते हैं और अपर्याप्त नामकर्म के उदय वाले भी। इसका आशय यह है कि चाहे पर्याप्त नामकर्म का उदय , & हो या अपर्याप्त नाम का, किन्तु जब तक करणों -शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियों की पूर्णता न हो तब " तक जीव करण-अपर्याप्त कहे जाते हैं। जिसने शरीर-पर्याप्ति पूर्ण की है, किन्तु इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण नहीं की है, वह भी करण-अपर्याप्ति कहा जा सकता है। अर्थात् शरीररूप करण के पूर्ण करने से करण९ पर्याप्ति और इन्द्रियरूप करण पूर्ण न करने से करण-अपर्याप्ति है। इसलिए शरीरपर्याप्ति से लेकर & मनःपर्याप्ति पर्यन्त पूर्व-पूर्व पर्याप्ति के पूर्ण होने पर करण-पर्याप्त और उत्तरोत्तर पर्याप्ति के पूर्ण न होने , से करण-अपर्याप्त कह सकते हैं, लेकिन जब जीव स्वयोग्य सम्पूर्ण पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेता है तब उसे करण-अपर्याप्त नहीं कहते हैं। लब्धि-पर्याप्त जीव वे कहलाते हैं जिनको पर्याप्त नामकर्म का उदय हो और इससे वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके मरते हैं, पहले नहीं। लेकिन करण-पर्याप्तों के लिए यह नियम नहीं & है कि वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरण को प्राप्त हों। लब्धि-अपर्याप्त जीव भी करण-अपर्याप्त होते हैं। क्योंकि यह नियम है कि लब्धि-अपर्याप्त भी , & कम से कम आहार, शरीर और इन्द्रिय -इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना महीं मरते हैं। जीव " का मरण तभी होता है जब आगामी भव की आयु का बंध हो जाता है और आयु तभी बांधी जा सकती है जबकि आहार, शरीर और इन्द्रिय -ये तीन पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैं। लब्धि-अपर्याप्त जीव / पहली तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही अग्रिम भव की आयु बांधता है। जो अग्रिम आयु को नहीं है ce बांधता है और उसके अबाधाकाल को पूर्ण नही करता है, वह मर भी नहीं सकता। इस प्रकार से स्व- . योग्य पर्याप्तियों के पूर्ण करने और न करने की योग्यता की अपेक्षा से समस्त संसारी जीवों - एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों -को पर्याप्त और अपर्याप्त माना जाता है। विकलेन्द्रियों (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय) में मतिज्ञान के सद्भाव के प्रसंग में प्रतिपादित : किया गया है कि वे पूर्वप्रतिपन्न तो हो सकते हैं, प्रतिपद्यमान नहीं। यहां यह समझ लेना चाहिए कि, << यहां 'आभिनिबोधिक ज्ञान' के सद्भाव से तात्पर्य है- सम्यक्त्व-सहित ज्ञान, क्योंकि सम्यक्त्वरहित , ce तो वह अज्ञान रूप ही है। यदि विकलेन्द्रिय ‘सास्वादन सम्यक्त्व' के साथ पूर्व भव से आते हैं, उनमें 7 'पूर्वप्रतिपत्ति' होने से मतिज्ञान का सद्भाव है, इसलिए वे पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं। किन्तु इन सभी" विकलेन्द्रियों में अपेक्षित विशुद्धि न होने से 'प्रतिपद्यमान' का सद्भाव नहीं होता। . (r)(r)CRORRORRORecr@@@cR929 -8888888888888883333333333333333333333333333 - 110
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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