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________________ -aca cacacacaca श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) DOODOOD (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) किन्तु किस रीति से तीन समयों में (ही) भाषा-द्रव्यों से ca यह लोक निरन्तरता के साथ स्पृष्ट होता है? (उत्तर-) बता रहे हैं- चूंकि कभी लोक के ठीक . & मध्य में स्थित होकर वक्ता पुरुष शब्द द्रव्यों को विसर्जित करता है, इसलिए वे (शब्द-द्रव्य) : प्रथम समय में ही छहों दिशाओं में (फैल कर) लोक के अंतिम छोर तक पहुंच जाते हैं, , व क्योंकि (तत्त्वार्थसूत्र, 2/25 में) जीव और सूक्ष्म पुद्गल -इन दोनों की 'अनुश्रेणी गति' कही / ce गई है। अतः द्वितीय समय में तो वे ही छः दण्डों के रूप में (परिणत हो जाते हैं और प्रत्येक " a दण्ड) चारों दिशाओं में (और ऊपर व नीचे) फैलते हुए छः मथानी के रूप में परिणत हो जाते है हैं। तीसरे समय में उनके द्वारा पृथक्-पृथक् रूप से चारों दिशाओं के अन्तराल (मध्यवर्ती , स्थान) भी पूरित हो जाते हैं, और इस प्रकार (समस्त) लोक उनसे पूरित हो जाता है। इस रीति से तीन समयों में भाषा द्वारा लोक का स्पर्श होता है। किन्तु जब कोई वक्ता लोक के , अंतिम छोर पर स्थित होकर बोलता है, अर्थात् चारों दिशाओं में से किसी एक दिशा में (त्रस), a नाड़ी के बाहर स्थित होकर बोलता है, तब चार समयों में यह लोक भाषा-द्रव्यों से पूरित क होता है। (प्रश्न-) ऐसा क्यों? (अर्थात् तीन की जगह चार समय क्यों लगते हैं?) (उत्तर-) क्योंकि एक समय में तो वह भाषा त्रस नाड़ी के अन्दर प्रविष्ट हो पाती है, बाकी तीन समय : पूर्ववत् समझने चाहिएं। किन्तु जब वक्ता विदिशा में स्थित होकर बोलता है, तो चूंकि / व पुद्गलों की गति अनुश्रेणी में होती है, इसलिए दो समयों में वह भाषा त्रस नाड़ी के भीतर प्रविष्ट हो पाती है, बाकी तीन समय पूर्ववत् लगते हैं। इस प्रकार (कुल) पांच समयों में & (भाषा-द्रव्यों से यह लोक) पूरित होता है। विशेषार्थ यह लोक त्रस और स्थावर जीवों से ठसाठस भरा हुआ है। त्रस जीव त्रस नाड़ी' में ही रहते हैं ca हैं, बाहर नहीं। स्थावर जीव त्रस नाड़ी के भीतर व बाहर दोनों जगह वर्तमान हैं। लोक के ऊपर से a नीचे तक चौदह राजू प्रमाण लंबे और एक राजू प्रमाण चौड़े ठीक मध्य के आकाश-प्रदेशों की , a त्रसनाड़ी होती है। इसके बाहर शेष स्थावरनाड़ी होती है। त्रसनाड़ी के बाहर लोक के अन्त में स्थित " CM वक्ता द्वारा उच्चारित भाषा के द्रव्य प्रथम समय में तो बस नाड़ी में प्रविष्ट होते हैं। द्वितीय समय में वहीं / C. अनुश्रेणी गति करते हैं, तृतीय समय में चारों दिशाओं में फैलते हुए छः मथानी के रूप में परिणत : व होते हैं और चतुर्थ समय में दिशाओं के अन्तरालों को भी स्पृष्ट करते हुए समस्त लोक को पूरित कर " | देते हैं। इसी तरह कोई वक्ता त्रस नाड़ी के बाहर, विदिशा (अर्थात् चारों दिशा में दो दिशाओं के मध्य | - 96 @@cR@@c@@cr(r)(r)(r)(r)(r)cr(r)900 333333 22222222233333333333333333333333333332
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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