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________________ -RRRRRcace श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 2200000 223233333333333333333333333333333333333333333 ! (हरिभद्रीय वृत्तिः) ca इह तनुयोगविशेष एव वाग्योगो मनोयोगश्चेति, कायव्यापारशून्यस्य सिद्धवत् . तदभावप्रसङ्गात्।ततश्चात्मनः शरीरव्यापारे सति येन शब्दद्रव्योपादानं करोति स कायिकः, , येन तु कायसंरम्भेण तान्येव मुञ्चति स वाचिक इति, तथा येन मनोद्रव्याणि मन्यते स मानस, इति, कायव्यापार एवायं व्यवहारार्थं त्रिधा विभक्त इत्यतोऽदोषः।तथा 'एकान्तरं च गृह्णाति, " निसृजत्येकान्तरं चैव' इत्यत्र केचिदेकैकव्यवहितं एकान्तरमिति मन्यन्ते, तेषां च . & विछिन्नरत्नावलीकल्पो ध्वनिरापद्यते, सूत्रविरोधश्च, यत उक्तम्- “अणुसमयमविरहियं / निरन्तरं गिण्हइ” त्ति। आह-यत्पुनरिदमुक्तम् “संतरं निसरति, नो निरंतरं, एगेणं समएणं गिण्हति, , एगेणं णिसरती" त्यादि, तत्कथं नीयते?, उच्यते।इह ग्रहणापेक्षया निसर्गः सान्तरोऽभिहितः।। एतदुक्तं भवति-यथा आदिसमयादारभ्य प्रतिसमयं ग्रहणम्, नैवं निसर्ग इति, यस्मादायसमये . नास्तीति, ग्रहणमपि निसर्गापेक्षया सान्तरमापद्यत इति चेत्, न।तस्य स्वतन्त्रत्वात्, निसर्गस्य , च ग्रहणपरतन्त्रत्वात्, यतो नागृहीतं निसृज्यत इति, अतः पूर्वपूर्वग्रहणसमयापेक्षया / सान्तरव्यपदेश इति। तथा एकेन समयेन गृह्णाति, एकेन निसृजति। किमुक्तं भवति? - " * ग्रहणसमयानन्तरेण सर्वाण्येव तत्समयगृहीतानि निसृजतीति ।अथवा एकसमयेन गृह्णात्येव, 0 & आद्येन, न निसृजति।तथा एकेन निसृजत्येव, चरमेण, न गृह्णाति / अपान्तरालसमयेषु तु " ग्रहणनिसर्गावर्थगम्यौ इत्यतोऽविरोध इति। (वृत्ति-हिन्दी-) यहां शारीरिक विशेष योग (व्यापार) ही वाग्योग व मनोयोग है, . & क्योंकि कायिक व्यापार से रहित व्यक्ति के तो सिद्धात्मा की तरह वाग्योग व मनोयोग का " & अभाव प्रसक्त हो जाएगा। इसलिए शारीरिक व्यापार होने पर जिसके द्वारा, आत्मा भाषाद्रव्य " & का उपादान करती है, वह उस आत्मा का शारीरिक योग है। जिस शारीरिक प्रयत्न द्वारा उन्हें ही आत्मा छोड़ती है, वह आत्मा का वाचिक योग है, और जिसके द्वारा आत्मा मनोद्रव्यों का मनन (ज्ञान) करती है, वह (उस आत्मा का) मानस योग है, इस प्रकार एक शारीरिक व्यापार का ही व्यवहार की दृष्टि से तीन रूपों में विभाग है, अतः कोई दोष नहीं है & रहता / और 'एकान्तर ग्रहण करता है और एकान्तर ही छोड़ता है' इस कथन में कुछ लोग " - 'एकान्तर' का अर्थ करते हैं- एक (अन्तर यानी) व्यवधान के साथ। उनके अनुसार, ध्वनि 78 (r)(r)RecRO908R@@@@@@* -
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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