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________________ -ecaceaenance හ හ හ හ හ හ හ හ හ -- . 2323222233333333333333 नियुक्ति गाथा-5 कर्णकुहर में प्राप्त शब्दों को सुनती है, अप्रविष्ट शब्दों को नहीं। नेत्र इन्द्रिय अपने में अप्रविष्ट रूप को ce ग्रहण करती है। घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय अपने-अपने उपकरण में बद्ध-प्रविष्ट विषय & को ग्रहण करती हैं। जैसे शरीर पर रेत लग जाती है, उसी तरह इन्द्रिय के साथ विषय का स्पर्श हो : तो, वह स्पृष्ट कहलाता है। स्पृष्ट का अर्थ- आत्मप्रदेशों के साथ सम्पर्कप्राप्त है, जबकि बद्ध का अर्थ है- आत्मप्रदेशों के द्वारा प्रगाढ़ संबंध को प्राप्त / विषय, स्पृष्ट तो स्पर्शमात्र से ही हो जाते हैं किन्तु बद्ध-स्पृष्ट तभी होते हैं, जब वे आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक हो जाते हैं। गृहीत होने के लिए गन्धादि ca द्रव्यों का बद्ध और स्पृष्ट होना इसलिए आवश्यक है कि वे बादर (स्थूल) हैं, अल्प हैं, वे अपने " cm समकक्ष द्रव्यों को भावित -उत्तरोत्तर द्रव्यों को वासित-प्रकम्पित नहीं करते तथा श्रोत्रेन्द्रिय की " अपेक्षा घ्राणेन्द्रिय आदि इन्द्रियां मन्दशक्ति वाली भी होती हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) . आह-भवतोक्तं योग्यदेशावस्थितमेव रूपं पश्यति, न पुनरयोग्यदेशावस्थितमिति, " * तत्र कियान् पुनश्चक्षुषो योग्यविषयः?, कियतो वा देशादागतं श्रोत्रादि शब्दादि गृह्णातीति? & उच्यते, श्रोत्रं तावच्छन्दंजघन्यतः खल्वङ्गुलासंख्येयमात्राद्देशात्, उत्कृष्टतस्तु द्वादशभ्यो योजनेभ्य इति। चक्षुरिन्द्रियमपि रूपं जघन्येनाङ्गुलसंख्येयभागमात्रावस्थितं पश्यति, उत्कृष्टतस्तु योजनशतसहसाभ्यधिकव्यवस्थितम् इति।घ्राणरसनस्पर्शनानि तु जघन्येनाङ्गुलासंख्येयc भागमात्राद्देशादागतं गन्धादिकं गृह्णन्ति, उत्कृष्टतस्तु नवभ्यो योजनेभ्य इति।आत्माङ्गुलनिष्पन्नं चेह योजनं ग्राहमिति। a. (वृत्ति-हिन्दी-) (शंका-) आपने (अभी) कहा कि नेत्र अपने योग्य देश (देखने की शक्ति के सीमा-क्षेत्र) में स्थित रूप को ही देखती है, अयोग्य देश में स्थित रूप को नहीं है a (देखती)। तो यह बताएं कि नेत्र इन्द्रिय का 'योग्य विषय' कितना (कितनी दूरी तक का , व क्षेत्र) होता है? और (यह भी बताएं कि) श्रोत्र आदि इन्द्रियां कितने (दूरवर्ती) देश से (आगत) 4. शब्दों आदि को ग्रहण करती हैं? (उत्तर-) लो, बता रहे हैं। श्रोत्र इन्द्रिय तो कम से कम है अंगुल के असंख्येय भाग मात्र (दूर स्थित) देश से, और अधिक से अधिक बारह योजनों से , (12 योजन दूर से आए) शब्द को सुन सकती है। नेत्र इन्द्रिय कम से कम अंगुल के संख्यात भाग प्रमाण स्थित को देख सकती है। और अधिक से अधिक एक लाख योजन से (सातिरेक) कुछ अधिक दूर देश में स्थित रूप को देख सकती हैं। किन्तु घ्राण, रसना व स्पर्शन (त्वचा) -33333333333388888888888888833333333333333333 333333 322323 33.323 @@@@Re0@Reecr@@@Rene 63
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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