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________________ न भूलें कि ध्यान करना जीवन से पलायन करना नहीं है, प्रवृत्ति से हट जाना नहीं है, किन्तु प्रवृत्ति के दोषों को समाप्त करना है। प्रवृत्ति और कर्म में आने वाली मलिनताएं, दोष, भ्रान्तियां, समस्याएं-ये सब ध्यान के द्वारा दूर होते हैं। यह बात समझ में आने पर ध्यान पलायनवाद है-इसका निरसन हो जाता है। प्रेक्षा-ध्यान अकर्म का प्रयोग है। हमारी क्रिया के साथ तीन बातें जुड़ी रहती हैं-(१) मैं जानता हूं, (2) मैं करता हूं (3) मैं भोगता हूं। पहली बात है कि मैं जानता हूं। प्रश्न होता है, क्या जानें? कुछ भी जानें। ज्ञान में कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। प्रत्येक पदार्थ ज्ञेय है। ज्ञेय सब-कुछ है, चाहे अच्छा हो या बुरा हो। ज्ञेय की दृष्टि में न कोई अच्छा होता है और न कोई बुरा होता है। वहां मात्र जानना होता है। दूसरी बात है मैं करता हूं। यहां अच्छा और बुरा, आवश्यक और अनाश्वक, उपयोगी और अनुपयोगी जुड़ जाएगा। एक आदमी एक समय अच्छा काम करता है, आवश्यक और उपयोगी काम करता है। वह आदमी दूसरे समय में बुरा काम करता है, अनावश्यक और अनुपयोगी काम करता है। करने के साथ विभाजन हो जाता है। ज्ञान के साथ विभाजन नहीं होता। तीसरी बात है-मैं भोगता हूं। भोगने की बात कर्म में दोष उत्पन्न करती है। क्रिया अपने आप में दोषपूर्ण नहीं होती। उसमें दोष आता है भोक्ता की स्थिति से। एक कार्य किया, उसके साथ भाव कैसा रहा? उसके पीछे भोगने की मनःस्थिति क्या रही? भोगने का अर्थ है-अच्छा काम करने पर अहंकार का आ जाना, बुरा काम करने पर निराशा का आ जाना, हीनभावना का आ जाना। आदमी इन सारी वृत्तियों को भोगता है। वह इन वृत्तियों की परिधि में घूम रहा है। आदमी कभी अहंकार को भोगता है, कभी हीनभावना को भोगता है। कभी वह हर्ष का अनुभव करता है और कभी विषाद का अनुभव करता है। कभी वह सुख का अनुभव करता है और कभी दुःख का अनुभव करता है। सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, अहंकार-हीनभावना-इन सारी वृत्तियों के साथ आदमी कार्य को भोगता है। ये सारी वृत्तियां व्यक्ति में उत्पन्न होती हैं। मनुष्य में 254 कर्मवाद
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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