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________________ इस साधना के दो प्रारंभिक सूत्र हैं-प्रतिक्रमण और प्रायश्चित। प्रतिक्रमण का अर्थ है-लौटना। केवल आगे ही नहीं बढ़ना है, लौटना भी है। लौटना बहुत जरूरी है और उसका भी एक निश्चित क्रम है। आदमी चलता है। क्या वह अपने पैरों को केवल आगे ही बढ़ाता है? नहीं। एक पैर आगे बढ़ता है और दूसरा पैर पीछे रहता है। बिलौने की भी यही पद्धति है। एक हाथ आगे बढ़ता है तब दूसरा पीछे रहता है और जब वह आगे आता है तब आगे वाला पीछे आ जाता है। यदि आगे-पीछे का यह क्रम न हो तो बिलौना हो नहीं सकता। हमें भी आगे बढ़ने के साथ पीछे भी लौटना होगा। प्रतिक्रमण का अर्थ ही है-पीछे लौट आना, वापस आ जाना। साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह प्रतिक्रमण और प्रायश्चित का महत्त्व समझे। दोनों महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। मनोविज्ञान ने इनको और अधिक उजागर किया है। मानसिक रोगी जब मनश्चिकित्सक के पास जाता है तब सबसे पहले उसे प्रतिक्रमण कराया जाता है। मनोरोगी से चिकित्सक कहता है, वर्तमान को भूलकर अतीत में चले जाओ। मुझे अतीत के जीवन के बारे में बताओ। मुझे बताओ कि अतीत में क्या घटा? तुमने क्या-क्या किया? वह प्रारम्भ से सारी बातें सुनता है। घटनाएं सुनता है और मनोग्रंथि के तथ्य को पकड़ लेता है। जब तक यह प्रतिक्रमण नहीं होता, तब तक मनश्चिकित्सक चिकित्सा नहीं कर सकता। यह अध्यात्म साधना की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। जब तक साधक की मनोग्रंथि नहीं खुलती, तब तक ध्यान नहीं होता। इसलिए अतीत का लेखा-जोखा करना बहुत जरूरी है। ___ आज का आदमी अकालमृत्यु से मर रहा है। सौ में से पांच-चार व्यक्तियों के अतिरिक्त सभी मनुष्य स्वाभाविक मौत से नहीं मरते, अकालमृत्यु से मरते हैं। इसका कारण है-आहार का असंयम, कामवासना का असंयम और आवेश या उत्तेजना। ये तीन कारण हैं। जिसमें कषाय का तीव्र आवेश होता है, वह जल्दी मरता है। जो कामवासना से पीड़ित होता है, वह अकालमौत मरता है। जिसमें आहार का संयम नहीं होता, वह भी पूरा जीवन नहीं जी सकता। इन विषयों में आदमी भ्रांत है, प्रतिक्रमण 177
SR No.004275
Book TitleKarmwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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