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________________ आह- ननु यस्य भव्यादिविशेषणविशिष्टस्याऽऽदौ योग्यमिदमावश्यकम्, तस्मै योग्यमित्येतावन्मात्रमेव ज्ञात्वा तद् ददत्याचार्याः, आहोस्विदन्योऽपि तत्र कश्चिद् विधिरपेक्षणीयः?। इति शिष्यवचनमाशङ्कयाऽस्मिन्नेव योगद्वारे तद्दानविधानादि किञ्चिल्लेशतः प्रासङ्गिकमभिधित्सुराह कयपंचनमोक्कारस्स दिन्ति सामाइयाइयं विहिणा। आवासयमायरिया कमेण तो सेसयसुयं पि॥५॥ [संस्कृतच्छाया:-कृतपञ्चनमस्काराय ददति सामायिकादिकं विधिना। आवासकमाचार्याः क्रमेण ततः शेषकश्रुतमपि॥] व्याख्या- भव्यादिविशेषणविशिष्ट स्यापि शिष्यस्य कृतपञ्चनमस्कारस्य चतुर्थ्यर्थे षष्ठी- कृतपञ्चनमस्काराय मङ्गलार्थमुच्चारितपञ्चनमस्कृतिमङ्गलायेत्यर्थः। सामायिकादिकमावासकं विधिना प्रशस्तं द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूपेण, प्रशस्तदिगभिमुखव्यवस्थापनादिरूपेण च समयोक्तेन ददत्याचार्याः, न पुनर्योग्यमित्येतावन्मात्रकमेव ज्ञात्वेति भावः। तत ऊर्ध्वमस्मै किं न किञ्चिद् ददति?, इत्याह- क्रमेण ततः शेषकमप्याचारादि श्रुतं प्रयच्छन्ति यावच्छुतोदधेः पारम्॥ इति गाथार्थः // 5 // (शंका-) भव्यत्व आदि विशेषताओं से युक्त जिस (शिष्य) को सर्वप्रथम इस 'आवश्यक' का दान योग्य (उचित) माना गया है। आचार्य क्या उसे मात्र 'योग्य' मानकर ही 'आवश्यक' (के ज्ञान) का दान करते हैं या फिर कोई अन्य विधि-विधान भी (वहां) अपेक्षित है? (उत्तर-) शिष्य की ओर से उक्त सम्भावित कथन के प्रत्युत्तर में, इसी योगद्वार-प्रकरण में उस (अनुयोग) के दान-सम्बन्धी विधि-विधान को- जो आंशिक रूप से यहां प्रासंगिक है- बताने की इच्छा से, (भाष्यकार) कह रहे हैं कयपंचनमोक्कारस्स दिन्ति सामाइयाइयं विहिणा। आवासयमायरिया कमेण तो सेसयसुयं पि॥ [(गाथा अर्थः) पंचपरमेष्ठी को नमस्कार कर चुके (शिष्य) को आचार्य विधिपूर्वक सामायिक आदि आवश्यक को, तथा क्रम से शेष श्रुत को भी प्रदान करते हैं।] . व्याख्याः- 'कृतपंचनमस्कारस्य' इस पद में चतुर्थी अर्थ में षष्ठी विभक्ति है। भव्यत्व आदि विशेषणों से युक्त शिष्य को भी, उसके द्वारा मङ्गल-निमित्त पंचनमस्कार मन्त्र के उच्चारित किये जाने पर ('आवश्यक' का दान करना चाहिए) -यह तात्पर्य है। (विधिना-) विधिपूर्वक, द्रव्य-क्षेत्रकाल व भाव रूप से प्रशस्त विधि- प्रशस्त दिशा में स्थित होना आदि- शास्त्रों में निरूपित है, उसके अनुसार, आचार्य सामायिक आदि आवश्यक (के ज्ञान) का प्रदान करते हैं, न कि यह इसके योग्य है- इतना मात्र जान कर, यह तात्पर्य है। क्या इसके बाद (शिष्य को) कुछ नहीं देते हैं? इस सम्भावित आशंका (के उत्तर) में कहा- क्रम से / अर्थात् उस (आवश्यक के ज्ञान का दान देने) के बाद, क्रम से शेष आचारांग आदि श्रुत को भी, उस समय तक देते हैं जब तक (वह शिष्य) श्रुत-सागर में पारंगत न हो जाए // यह गाथा का अर्थ हुआ // 5 // VA 16 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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