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________________ तथोपक्रमादिद्वाराणामेव प्रयोजनं शास्त्रोपकाररूपं नगरदृष्टान्तेन वाच्यम्, यथा सप्राकारं महानगरं किमप्यकृतद्वारं लोकस्याऽनाश्रयणीयं भवति, एकादिद्वारोपेतमपि दुःखनिर्गमप्रवेशं जायते, चतुरोपेतं तु सर्वजनाभिगमनीयं सुख-निर्गमप्रवेशं च संपद्यते, एवं शास्त्रमप्युपक्रमादिचतुर्दारयुक्तं सुबोधम्, सुखचिन्तन-धारणादिसंपन्नं च भवतीति / एवमुपक्रमादिद्वाराणां सुखावबोधादिरूपः शास्त्रोपकारः प्रयोजनमिह वक्ष्यत इति भावः। भेदश्च निरुक्तं च क्रमश्च प्रयोजनं चेति द्वन्द्वं कृत्वा पश्चात् तेषामुपक्रमादिद्वाराणां भेद-निरुक्त-क्रम-प्रयोजनानीत्येवं - षष्ठीतत्पुरुषसमासो विधेयः। चः समुच्चये। वाच्यानीति यथायोगमर्थतः सर्वत्र योजितमेव। इति द्वारगाथासंक्षेपार्थः॥२॥ विस्तरार्थं तु भाष्यकार एव दिदर्शयिषुः"यथोद्देशं निर्देशः" इति कृत्वा प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थमावश्यकानुयोगफलप्रतिपादिकां तावद् गाथामाह कहना चाहिए, अर्थात् उपक्रमादि द्वारों में सर्वप्रथम उपक्रम, और उसके बाद (ही) निक्षेप आदि का कथन हो, इस प्रकार जो नियत क्रम है, उसका युक्ति व कथन द्वारा निर्देश भी अपेक्षित है। युक्ति का कथन यहीं आगे करेंगें। उदाहरणार्थ- बिना उपक्रम के निक्षेप नहीं किया जाता तथा बिना निक्षेप के अनुगम नहीं किया जाता। ये उपक्रम आदि 'द्वार' शास्त्र के उपकारक होते हैं और यही (शास्त्रोपकारकता) उनका प्रयोजन है। इसका कथन नगर-दृष्टान्त के माध्यम से करणीय है। जैसे- कोई महानगर भले ही (विविध) प्राकारों से युक्त हो, किन्तु यदि उसमें द्वार नहीं हों तो वह किसी के लिए भी आश्रयणीय नहीं हो पाता। एक (दो या तीन) आदि द्वारों वाले महानगर में प्रवेश व उससे निष्क्रमण (रूप आवागमन) कुछ दुःखसाध्य होता है। इसके विपरीत, चार द्वारों से युक्त महानगर सभी लोगों के लिए प्रवेश करने या निकलने में सुगम होता है। इसी प्रकार, उपक्रम आदि चार द्वारों से युक्त शास्त्र भी सुबोध्य होता है और चिन्तन व धारण आदि की दृष्टि से भी सुगम होता है। इस प्रकार, उपक्रम आदि द्वारों की- सुखपूर्वक अर्थबोध कराने की दृष्टि से -जो शास्त्र-उपकारकता है, उसका भी निरूषण यहां करणीय है, यह (गाथा का) तात्पर्य है। भेद, निरुक्त, क्रम व प्रयोजन- इनका द्वन्द्व समास कर, बाद में उन उपक्रम आदि द्वारों के भेद, निरूक्त, क्रम व प्रयोजन, इस प्रकार (उनका 'तत्' पद के साथ) षष्ठी तत्पुरुष समास करना चाहिए। 'च' यह पद समुच्चय-बोधक है। सबके अन्त में 'वाच्यानि' (=कथनीय हैं) यह पद सब में जोड़ना चाहिए। इस प्रकार, द्वारगाथा का संक्षिप्त अर्थ (पूर्ण) हुआ // 2 // (आवश्यक और अनुयोग की ज्ञान-क्रियामयता) उद्देश (प्रयोजन व जिज्ञासा) के अनुरूप ही निर्देश (निरूपण) किया जाना चाहिए- इसे दृष्टि में रख कर, विस्तार से अर्थ (विषयवस्तु) के निरूपण करने की इच्छा से, स्वयं भाष्यकार समझदार लोगों की (इस शास्त्र के श्रवणादि में) प्रवृत्ति हो- इस दृष्टि से आवश्यक-अनुयोग के फल का निदर्शन करने वाली गाथा को कह रहे हैं ---- विशेषावश्यक भाष्य -------- 11 2
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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