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________________ विशेषावश्यक भाष्य : एक महनीय ग्रन्थ 28 हजार श्लोकों के प्रमाण वाला यह भाष्य वस्तुतः जैन दर्शन का एक विश्वकोश या उत्कृष्ट ग्रंथ हैयह कहना अत्युक्ति नहीं होगी। न केवल जैन दर्शन के सिद्धान्तों का ही तार्किक दृष्टि से विवेचन इसमें है, अपितु (तुलनात्मक दृष्टि से) अन्य दार्शनिक मतों को खण्डन करते हुए इस ग्रंथ में स्वमत का समर्थन भी प्राचीन आगमिक परम्परा के आलोक में किया गया है। उक्त तार्किक-दार्शनिक चर्चा में भाष्यकार का आगमवादी स्वरूप विशेष रूप से निखरा है। भाष्यकार ने नियुक्ति-पद्धति का पूर्णतः अनुसरण किया है। स्वयं भाष्यकार ने इस ग्रंथ को समस्त अनुयोगों का मूल कहा है। भाष्यकार ने नियुक्ति की व्याख्या करते हुए मूलनियुक्ति के हार्द को तो स्पष्ट किया ही है, प्रासंगिक रूप से अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का विस्तृत विवेचन भी प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि यह ग्रन्थ विद्वानों व अनुसन्धाताओं के लिए जैन तत्त्वज्ञान, प्रमाणशास्त्र, नय, निक्षेप, ज्ञान मीमांसा, आचारमीमांसा, कर्म सिद्धान्त, तथा प्राचीन इतिहास व संस्कृति से सम्बन्धित विपुल ज्ञान-निधि का एक विशिष्ट भण्डार बन गया है। भाष्य की विषयवस्तु एवं व्याख्या-पद्धति का कुछ संकेत नियुक्ति-पद्धति के निरूपण में किया जा चुका है, तथापि कुछ अन्य उपयोगी ज्ञान-सामग्री से भी पाठक परिचित हों- इस दृष्टि से कुछ विवरण यहां दिया जा रहा है / प्रारम्भ में 'मंगल' या 'मंगलाचरण' को विविध निक्षेपों के माध्यम से समझाया गया है। ज्ञान को भावमङ्गल मान कर पांचों ज्ञानों का निरूपण किया गया है। ज्ञानपंचक प्रकरण में सभी ज्ञानों को, उनके स्वरूप, क्षेत्र, विषय, स्वामी आदि विविध दृष्टियों से सुबोधगम्य बनाया गया है। प्रासंगिक रूप से उपयोगी विषयों का, जैसे मति व श्रुत का सम्बन्ध व परस्पर अन्तर, नेत्र व मन की अप्राप्यकारिता, श्रुत के विविध भेद आदि का विशद निरूपण किया गया है। इसके बाद 'सामायिक' सम्बन्धी विवेचन है। इसे समझने के लिए उपक्रम आदि चार द्वारों का निर्देश कर भाष्य का 'उपोद्घात' भाग प्रारम्भ होता है। तीर्थ व तीर्थंकर के स्वरूपादि का विवेचन करते हुए 'नियुक्ति' की परिभाषा व स्वरूप का निरूपण किया गया है। 'सामायिक' से सम्बन्धित विविध विचारबिन्दुओं को दृष्टि में रखकर इसके 26. द्वारों से विवेचना की गई है। इसके बाद, गणधरों की चर्चा है और 'गणधरवाद' का एक विस्तृत प्रकरण प्रस्तुत है। इसमें आत्मा की स्वतंत्र सत्ता, कर्म का अस्तित्व, आत्मा व देह का पार्थक्य, शून्यवाद-निराकरण, परलोक व देव-नारकों का सद्भाव, पुण्य-पाप-बन्ध-मोक्ष पदार्थ - इन सभी का 'गणधरवाद' के अंतर्गत विशद निरूपण किया गया है जो दार्शनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। 64. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-3603. R@neCROBORO ROOR [51] ROORB0RBOORBOOR
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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