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________________ (5) विचार (या चालना):- सम्बन्धित वैचारिक चिंतन की प्रस्तुति। इसमें सूत्र या अर्थ पर संभावित दोषों पर विचार भी किया जाता है।" (6) दूषितसिद्धि (प्रत्यवस्थान):- सम्भावित दोषों का परिहार करना। इन छ: प्रकार के व्याख्या-सोपानों का क्रम भी यथावत् होना चाहिए, आगे-पीछे नहीं।" नियुक्ति एवं उसके व्याख्या साहित्य में अंगीकृत नियुक्ति-पद्धति : उक्त निरुक्त पद्धति का ही अनुसरण करते हुए आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य की रचना की है और इन्होंने तथा व्याख्याकारों ने विषयवस्तु को इसी पद्धति के अनुरूप व्याख्यान करने का प्रयास किया है। भाष्य के प्रारम्भ में ही (दूसरी गाथा में) भाष्यकार ने निर्दिष्ट कर दिया है कि वे अनुयोगपद्धति से निरूपण करेंगे। उन्होंने इस पद्धति के अनुरूप अनुयोगद्वारों का निर्देश भी किया है। वे द्वार इस प्रकार हैं-(1) फल (आवश्यक का पुण्य फल), (2) योग (शिष्य के लिए उपदेशयोग्यता), (3) मंगल (का स्वरूप), (4) समुदायार्थ (सामायिक आदि प्रत्येक अध्ययन का समुदित अभिधेय अर्थ), (5) द्वार (अनुयोगद्वार), (6) भेद (उपक्रम, निक्षेप, अनुगम, नय आदि अनुयोगद्वार- भेद), (7) (उपक्रम आदि की) निरुक्ति, (8) (उपक्रमादि नियत क्रम के) प्रयोजन (का कथन) 57. सुत्तगयमत्थविसयं व दूसणं चालणं मयं (वि. भाष्य, गा.-1007)। यत् सूत्रविषयम्, अर्थविषयं वा शिष्यप्रेरकैर्दूषणम् उद्भाव्यते, तच्चालनं विचारो मतममिप्रेतम् (बृहवृत्ति, वहीं)। 58. तस्स, सद्दत्थण्णायाओ परिहारो पच्चवत्थाणं (वि. भाष्य, गाथा- 1007) / शब्दार्थन्यायतः, शब्दविषयिणा न्यायेन . शब्दसंभविन्या युक्त्या शब्दगतदूषणस्य परिहारः, अर्थविषयिणा न्यायेन अर्थसंभविन्या युक्त्या अर्थगतदूषणस्य परिहारः प्रत्यवस्थानं दूषितसिद्धिः इत्यर्थः (बृहद्वृत्ति, वहीं)। 59. व्याख्यानविधौ प्रस्तुते प्रथमं तावत्.......सूत्रमुच्चारणीयम्।.....ततश्च पदम् पदच्छेदो दर्शनीयः / ततः पदार्थो वक्तव्यः / तत: संभवतो विग्रहः समासः कर्तव्यः / ततश्चालनारूपो विचार: कर्तव्यः / ततो दूषितसिद्धिः- दूषणपरिहार: प्रत्यवस्थानरूपो निरूपणीयः। एवमुक्तक्रमेण अनुसूत्रं प्रतिसूत्रं नियमितविशेषतो नयानां मतविशेषैः व्याख्यानं ज्ञेयम् (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-1002)। 60. तस्स फल जोगमंगलसमुदायत्था तहेव दाराई। तब्भेय-निरुत्तक्कम पओयणाइं च वच्चाई (वि. भाष्य, गा. 2) // प्रेक्षावतां प्रवृत्तिनिमित्तं फलं मोक्षप्राप्तिलक्षणं तावयत्र ग्रंथे वक्तव्यम्। ततोऽस्य योग: शिष्यप्रदाने सम्बन्धोऽवसरः प्रस्तावो वाच्यः। आवश्यकानुयोगे च क्रियमाणे किं मङ्गलम् -इत्येतदपि निरूपणीयम्। सामायिकादिअध्ययनानां......समुदायार्थश्च सावद्ययोगविरति-आदिकोऽभिधानीयः ।.....तथा द्वाराणि च उपक्रमनिक्षेपादीनि कथनीयानि / तेषां द्वाराणां भेदो वक्तव्यः / तद्यथाआनुपूर्वी-नाम-प्रमाण-वक्तव्यता-अर्थाधिकार-समवतार-भेदाद् उपक्रमः षोढा, ओघनिष्पन्न-नामनिष्पन्न-सूत्रालापकनिष्पन्नभेदात् निक्षेपः त्रिधा, सूत्रनियुक्तिभेदाद् अनुगमो द्विधा, नैगमादिभेदात् नयाः सप्तविधाः इत्यादि। उपक्रमणम् उपक्रमः, निक्षेपणं निक्षेपः इत्यादि। निरुक्तं च शब्द-व्युत्पत्तिरूपं भणनीयम्।..तेषामुपक्रमादिद्वाराणां प्रथमम् उपक्रम एव, ततो यथाक्रमं निक्षेपादयः एव, इत्येवंरूपोऽसौ नियतः क्रमः, स युक्त्या अभिधानतो निर्देष्टव्यः (बृहद्वृत्ति, वि. भाष्य, गाथा-2)। RB0RB0BARB0BARB0BR [46] Re0@ROBCROBCROOK
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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