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________________ थाणु-पुरिसाइ-कुठु-प्पलाइ-संभियकरिल्ल-मंसाई। सप्पु-प्पलनालाइ व्व, समाणरूवाइविसयाई // 293 // [संस्कृतच्छाया:- स्थाणुपुरुषादि-कुष्ठोत्पलादि-संभृतकरीलमांसादि। सर्पोत्पलनालादिवत् समानरूपादिविषयाणि // ] 'ईहादिवस्तूनि सूपलक्ष्याणि' इत्युक्तम्। कथंभूतानि सन्ति पुनस्तानि सूपलक्ष्याणि?, इत्याह-समानः समानधर्मा रूपरसादिविषयो येषामीहादीनां तानि समानरूपादिविषयाणीति पूर्वगाथायां संबन्धः। कः पुनरमीषां समानधर्मा रूपादिविषयः?, इत्याहस्थाणु-पुरुषादिवदिति पर्यन्ते निर्दिष्टोऽपि विषयोपदर्शनाभिद्योतको वच्छब्दः सर्वत्र योज्यते। ततश्चक्षुरिन्द्रियप्रभवस्येहादेः स्थाणुपुरुषादिवत् समानधर्मा रूपविषयो द्रष्टव्यः। आदिशब्दात् 'किमियं शुक्तिका, रजतखण्डं वा?''मृगतृष्णिका, पयःपूरो वा?', 'रज्जुः, विषधरो वा?', इत्यादिपरिग्रहः / घ्राणेन्द्रियप्रभवस्येहादेः कुष्ठोत्पलादिवत् समानगन्धो विषयः, तत्र कुष्ठंगन्धिक-हट्टविक्रेयो वस्तुविशेषः, उत्पलं पद्मम.अनयोः किल समानो गन्धो भवति / तत ईदशेन गन्धेन 'किमिदं कुष्ठम्, उत्पलं वा?' इत्येवमीहाप्रवृत्तिः, आदिशब्दात मसाइ। - // 293 // थाणु-पुरिसाइ-कुठु-प्पलाइ-संभियकरिल्ल-मंसाई। सप्पु-प्पलनालाइ व्व, समाणरूवाइविसयाई॥ . . [(गाथा-अर्थ :) (समान रूप वालों में) ढूंठ वृक्ष व पुरुष इत्यादि, (समान गन्ध वालों में) कुष्ठ (वृक्ष या वनस्पति विशेष, कूठ, पाकल) व पद्म (कमल), (समान रस वालों में) संस्कारित (साफ कर मसाले आदि मिलाये हुए वंशकरील व मांस, तथा (समान स्पर्श वालों में) सर्प व पद्मनाल -ये (क्रमशः) समान रूप (गन्ध, रस व स्पर्श) आदि के विषय होते हैं।] व्याख्याः- ईहा आदि भेद 'सूपलक्ष्य' (सम्यक्तया ज्ञेय) हैं- यह (पूर्व गाथा-292 में) कहा गया है। (प्रश्न-) वे 'सूपलक्ष्य' किस प्रकार हैं? उत्तर दिया- (समानरूपादिविषयाणि)। वे ईहा आदि (वस्तु-भेद) 'रस आदि समान धर्मी विषय' वाले होते हैं- इस कथन को पूर्व गाथा में जोड़ना चाहिए। (प्रश्न-) इन (ईहा आदि) के 'समानधर्मी रूपादि विषय' कौन-कौन से हैं? उत्तर दिया(स्थाणुपुरुषादि...वत्)। (यद्यपि) 'वत्' यह प्रत्यय अन्त में ('उत्पलनाल' शब्द के बाद) प्रयुक्त है, तथापि विषय को निर्दिष्ट करने वाले ‘वत्' प्रत्यय का योग सर्वत्र (स्थाणु-पुरुषादि, कुष्ठोत्पलादि इत्यादि सभी में करते हुए स्थाणुपुरुषादि की तरह इत्यादि अर्थ) करणीय है। फलस्वरूप (अर्थ यह है-) नेत्र आदि इन्द्रियों से होने वाले ईहा आदि ज्ञान का स्थाणु-पुरुष आदि की तरह समानधर्मी रूप आदि विषय होते हैं- यह समझना चाहिए। 'आदि' शब्द से 'यह क्या सीप है या चांदी का टुकड़ा', 'मृगतृष्णा है या जलप्रवाह है', 'रस्सी है या सांप है' इत्यादि (ईहा-स्वरूपों) का भी ग्रहण होता है। घ्राणेन्द्रिय से होने वाले ईहादि ज्ञान के कुष्ठ व उत्पल आदि की तरह 'समानगन्धधर्मी विषय' होते हैं। यहां कुष्ठ (एक वृक्ष, वनस्पति विशेष) इत्र के बाजार में बिकने वाली कोई वस्तु होती है और उत्पल का अर्थ पद्म (कमल) है। इन दोनों की गन्ध समान होती है। जब वैसी ही गन्ध (अनुभूत) होती है, Maa 426 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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