SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तु विशेषः, इत्येकस्याऽपि सामान्यस्योभयरूपता। तथा योऽपि भवदभ्युपगतो विशेषः सोऽपि त्वदभिप्रायेण विशेषः वस्तुस्थित्या तु सामान्यम्, इति विशेषस्याप्येकस्योभयस्वभावता। भवत्वेवमिति चेत् / इत्याह- न च युक्तं सर्वमिदम्। किं कृत्वा?, इत्याह- सामान्यमालम्बनं ग्राह्य मुक्त्वा अर्थावग्रहस्य' इति शेषः। इदमुक्तं भवति-अर्थावग्रहस्याऽव्यक्तं सामान्यमात्रमालम्बनं परिहत्य यदन्यद् विशेषरूपमालम्बनमिष्यते, तदभ्युपगमे च 'सामण्णं च विसेसो वा सामण्णं' इत्यादि यदापतति, तत् सर्वमयुक्तम्, अघटमानकत्वात् / इह च गाथात्रये बहुषु दूषणेषु मध्ये यत् प्रागुक्तमपि किञ्चिद् दूषणमुक्तं, तत् प्रसङ्गायातत्वात्, इति न पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयम् / / इति गाथार्थः॥२७० // 271 // 272 // प्रस्तुत एवार्थेऽपरमपि मतान्तरमुपन्यस्य निराकुर्वन्नाह (माना जा रहा) है, इस प्रकार एक ही 'सामान्य' की उभयरूपता होने लगेगी, तथा जिसे आपने 'विशेष' जाना है, वह भी आपके अभिप्राय से (भले ही) 'विशेष' हो, वस्तुतः तो 'सामान्य' ही है, अतः एक 'विशेष' का ही उभय स्वभाव हो जाएगा (जो सिद्धान्तविरुद्ध है और असंगत भी)। (प्रश्न-) ऐसा हो जाय तो हो (हानि क्या है)? उत्तर दिया- (न च युक्तं सर्वमिदम्)। यह सब युक्तियुक्त नहीं है। क्या करने से युक्तियुक्त नहीं है? उत्तर दिया- (सामान्यालम्बनं मुक्त्वा)। 'सामान्य आलम्बन अर्थावग्रह का ग्राह्य है -इस (मान्यता) को त्याग देने पर' -यह कथन ('सभी उपर्युक्त दोषपूर्ण परिस्थितियां युक्तियुक्त नहीं है' इस कथन का) शेष भाग है। .. तात्पर्य यह है-अर्थावग्रह के अव्यक्त सामान्य मात्र आलम्बन को छोड़ कर, जो अन्य विशेष रूप आलम्बन आप मान रहे हैं, उसको मानने पर 'सामान्य की विशेषरूपता, या विशेष की सामान्यरूपता' आदि जो (दोषपूर्ण) स्थिति आती है, वह सब अयुक्तियुक्त है, क्योंकि वह घटित होती ही नहीं (और आपके मत को मान लें तो उन असंगत व घटित न होने वाली स्थितियों का होना मानना पड़ेगा, जो दोषपूर्ण होने से युक्तियुक्त व मान्य नहीं)। इन तीन गाथाओं में बहुत से दोषों में, वे सभी दोष जो पहले कहे गये थे, उनमें से भी कुछ निर्दिष्ट किये गये हैं, क्योंकि ऐसा करना प्रसंगोचित था, अतः पुनरुक्ति दोष की आशंका नहीं करना चाहिए। यह तीन गाथाओं का अर्थ पूर्ण हुआ // 270-272 // * अवग्रह में आलोचन (निर्विकल्पक) ज्ञान का विचार प्रस्तुत व्याख्यान के अन्तर्गत ही एक अन्य मत को उपस्थापित करते हुए उसके निराकरण हेतु भाष्यकार कह रहे हैं विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 397
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy