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________________ अथ परस्य मतिः स्यात्। केयम्?, इत्याह- सोऽव्यक्तोऽनिर्देश्यादिस्वरूपः शब्दोऽर्थावग्रहात् पूर्वमेव व्यञ्जनावग्रहे तेन श्रोत्रा गृहीतः, तत् किमित्यर्थावग्रहेऽपि तद्ग्रहणमुद्देष्यते?। कथमिदं पुनर्जायते यदुत-असौ व्यञ्जनावग्रहे गृहीतः?, इत्याह'जमित्यादि ।यद् यस्माद् व्यञ्जनावग्रहेऽपि भवभिरव्यक्तं विज्ञानमुक्तम्, अव्यक्तविषयग्रहण एव चाव्यक्तत्वं तस्योपपद्यत इतिभावः॥ इति गाथार्थः॥२३॥ अत्रोत्तरमाह अस्थि तयं अव्वत्तं, न उ तं गेण्हइ सयं पि सो भणियं। न उ अग्गहियम्मि जुजइ, सद्दो त्ति विसेसणं बुद्धी॥२६४॥ [संस्कृतच्छाया:- अस्ति तद् अव्यक्तम्, न तु तद् गृह्णाति स्वयमपि असौ भणितम्। न तु अगृहीते युज्यते शब्द इति विशेषण-बुद्धिः॥] अस्ति तदव्यक्तं श्रोतुळञ्जनावग्रहे ज्ञानम्, न तस्याऽस्माभिरपलापः क्रियते, न पुनरसौ श्रोताऽतिसौक्ष्म्यात् तत् स्वयमपि गृह्णाति संवेदयते। एतच्च प्रागपि भणितम्। 'सुत्त-मत्ताइसहुमबोहो ब्व' इति वचनात्, तथा, 'सुत्तादओ सयं वि य विन्नाणं नावबुज्झन्ति' इति वचनाच्च। तस्माद् व्यञ्जनमात्रस्यैव तत्र ग्रहणम्, न शब्दस्य, व्यञ्जनावग्रहत्वान्यथानुपपत्तेरेवेति। ___ व्याख्याः - संभवतः विरोधी (पूर्वपक्षी) का ऐसा अभिमत हो। कैसा अभिमत हो? उत्तर दिया- (स पूर्वमेव गृहीतः)। वह अनिर्देश्य स्वरूप वाला अव्यक्त शब्द तो अर्थावग्रह से पूर्व ही व्यअनावग्रह में उस श्रोता द्वारा गृहीत हो चुका है, तब फिर अर्थावग्रह में भी उसके ग्रहण होने की आपने क्यों रट लगा रखी है? यह कैसे ज्ञात होता है कि इसका ग्रहण व्यञ्जनावग्रह में हो चुका है? उत्तर दिया- (यत् व्यअनावग्रहेऽपि)। चूंकि व्यअनावग्रह में भी आपने अव्यक्त विज्ञान होने का कथन किया है। तात्पर्य है कि अव्यक्त विषय के ग्रहण में ही उसके अव्यक्त होने की संगति बैठती है।। यह माथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 263 // / (व्यअनावग्रह व अर्थावग्रह में अन्तर) अब, (पूर्वपक्ष के संभावित पूर्वोक्त प्रश्न का भाष्यकार) उत्तर दे रहे हैं // 264 // अत्थि तयं अव्वत्तं, न उतं गेण्हइ सयं पि सो भणियं। न उ अग्गहियम्मि जुज्जइ, सद्दो त्ति विसेसणं बुद्धी // - [(गाथा-अर्थ :) वहां (व्यञ्जनावग्रह में) अव्यक्त ज्ञान तो है, किन्तु (श्रोता) उसे स्वयं भी ग्रहण नहीं करता। और अगृहीत (अव्यक्त शब्द) में 'शब्द' ऐसी विशेषण बुद्धि (विशेष, निश्चयात्मक ज्ञान की स्थिति) संगत नहीं होती।] व्याख्याः- श्रोता के व्यञ्जनावग्रह में वह ज्ञान 'अव्यक्त' है- हम इसका निषेध नहीं करते, किन्तु श्रोता उसे अतिसूक्ष्म होने से स्वयं भी ग्रहण या संवेदन नहीं करता -यह हमने पहले भी कहा Ba .....-..-- विशेषावश्यक भाष्य - --- ------ 385 ---- d
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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