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________________ . पारिशेष्यादस्मभ्युपगतार्थावग्रह एव सामान्यग्रहणमिति गाथायामनुक्तमिति स्वयमेव द्रष्टव्यम्। तदनन्तरं चाऽन्वय-व्यतिरेकधर्मपर्यालोचनरूपा ईहा, तदनन्तरं च 'शब्द एवाऽयम्' इति निश्चयज्ञानमपायः, इति सर्वं सुस्थं भवति // इति गाथार्थः // 259 // अथ प्रथममेवाऽर्थावग्रहज्ञानेन शब्दाग्रहणे परः पुनरपि दोषमाह जइ सद्दो त्ति न गहियं, न उ जाणइ जंक एस सद्दो त्ति। तमजुत्तं सामण्णे, गहिए मग्गिजइ विसेसो॥२६०॥ [संस्कृतच्छाया:- यदि शब्द इति न गृहीतं न तु जानाति यत् क एष शब्द इति / तद् अयुक्तं सामान्ये गृहीते मृग्यते विशेषः॥] यद्यर्थावबोधसमये प्रथममेव 'शब्दोऽयम्' इत्येवं तद् वस्तु न गृहीतं, तर्हि 'न उण जाणइ के वेस सद्दे त्ति'। जं ति। यत् सूत्रे निर्दिष्टम, तदयुक्तं प्राप्नोति, यस्माच्छब्दसामान्ये रूपादिव्यावृत्ते गृहीते सति पश्चाद् मुग्यतेऽन्विष्यते विशेष:- 'किमयं शब्द: शाङ्कः, उत शाईगः' इति। होता है, क्योंकि वहां मन-रहित इन्द्रिय-व्यापार होता है और वहां (कोई) अर्थ-प्रतिभास नहीं होता। इसलिए, ‘पारिशेष्यन्याय' से (अर्थात् आपके सामने जो एकमात्र विकल्प यही बचा है कि आप यह मान लें कि) वह सामान्य-ग्रहण हमारे द्वारा स्वीकृत ‘अर्थावग्रह' ही है- ऐसा, यद्यपि इस गाथा में नहीं कहा गया है, तथापि, स्वयं समझ लेना चाहिए। इस (उक्त अर्थावग्रह) के बाद, अन्वय-व्यतिरेक धर्म सम्बन्धी पर्यालोचन रूप 'ईहा' होती है, उसके बाद 'यह शब्द ही है' -ऐसा निश्चय ज्ञान रूप 'अपाय' होता है। इस रीति से, सब कुछ समीचीन हो जाता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 259 // अब, प्रथमतः ही अर्थावग्रह ज्ञान से शब्द का ग्रहण न मापने पर पूर्वपक्षी पुनः दोष उद्भावित कर रहा है // 260 // जइ सद्दो त्ति न गहियं, न उ जाणइ जं क एस सद्दो त्ति / ___ तमजुत्तं सामण्णे, गहिए मग्गिज्जइ विसेसो // ___ [(गाथा-अर्थ :) 'यह शब्द है' इस प्रकार से ग्रहण नहीं हुआ तो वह 'यह शब्द कौन-सा है'यह (भी) नहीं जान पाएगा। ('यह कौन-सा शब्द है -यह नहीं जानता') -यह (सूत्रोक्त) कथन अयुक्तियुक्त हो जाएगा, क्योंकि 'सामान्य' के ग्रहण होने पर ही 'विशेष' की मार्गणा (जानने की प्रवृत्ति) की जाती है।] व्याख्याः - यदि अर्थज्ञान के समय, प्रथमतः ('यह शब्द है'- इस रूप में उस वस्तु का ग्रहण नहीं हो, तो सूत्र में यह जो कहा गया है कि 'किन्तु वह यह नहीं जानता कि वह कौन-सा शब्द है' - यह अयुक्तियुक्त (असंगत) हो जाएगा, क्योंकि रूप आदि की व्यावृत्ति (निराकरण) के साथ शब्दसामान्य के ग्रहण होने पर (ही) बाद में यह विशेष ज्ञान की अन्वेषणा होती है कि 'यह शब्द क्या शंख का है या शृङ्गी (वाद्य) का है?' ---- विशेषावश्यक भाष्य -- ---- 381 -
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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