SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इदमत्र हृदयम्- अस्मिन् पक्षे यदा तयोरिन्द्रिय-द्रव्ययोः परस्परमतीव संयुक्तताऽनुषक्तताऽङ्गाङ्गिभावेन परिणामो भवति, तदा प्रस्तुतसम्बन्धलक्षणं व्यञ्जनमापूरितं भवतीत्युच्यत इति। जया तया गिण्हइ तमत्थं ति। एवं यदा त्रिविधमपि व्यञ्जनं प्रकारत्रयेणाऽऽपूरितं भवति, तदा तं विवक्षितं शब्दादिकमर्थमव्यक्तं नाम-जात्यादिकल्पनारहितं गृह्णाति। एतच्च ताहे हुं ति करेइ इत्यस्य व्याख्यानम्। अर्थावग्रहश्चाऽयमेकसामयिको विज्ञेयः, इतरस्तु पूर्वमन्तर्मुहर्तं द्रव्यप्रवेशादिरूपो व्यञ्जनावग्रहोऽवसेयः॥ इति गाथार्थः॥२५१॥ किंविशिष्टं पुनस्तमर्थं गृह्णाति?, इत्याशङ्कय स्वत एव भाष्यकारस्तत्स्वरूपमाह सामन्नमणिद्देसं सरूव-नामाइकप्पणारहियं / जइ एवं जंतेणं गहिए सद्दे त्ति तं किह णु? // 252 // [ संस्कृतच्छाया:- सामान्यमनिर्देश्य स्वरूप-नामादिकल्पनारहितम्। यद्येवं यत् 'तेन गृहीतः शब्दः' इति तत् कथं नु?॥] यहां तात्पर्य यह है- (जब 'व्यञ्जन' का अर्थ 'द्रव्य व इन्द्रिय का सम्बन्ध' अभीष्ट हो तो) इस पक्ष में जब इन्द्रिय व द्रव्य -इन (दोनों) का परस्पर अत्यन्त संयोग, अनुषङ्ग (संस्पर्श) या अङ्गाङ्गीभाव से परिणमन (यानी शब्द का इन्द्रियरूपी अङ्गी का अङ्ग बन जाना) संपन्न हो जाय, तब प्रस्तुत सम्बन्ध वाले व्यञ्जन को 'आपूरित हुआ' ऐसा कहा जाता है। (यदा तदा गृह्णाति तमर्थम् इति)। इस प्रकार, जब तीनों प्रकार का व्यञ्जन (उक्त) तीनों रीतियों से आपूरित हो जाये, तब उस विवक्षित शब्दादिक अर्थ को अव्यक्त (अर्थात्) नाम, जाति आदि कल्पनाओं से रहित रूप से (जीव) ग्रहण करता है। यहां तक का (व्याख्यान जो हुआ है, वह) 'तब वह हुंकार भरता है' इस कथन का व्याख्यान है। इनमें अर्थावग्रह तो एक समय की स्थिति वाला है- ऐसा जानना चाहिए, इस (अर्थावग्रह) से अतिरिक्त, पूर्ववर्ती अन्तर्मुहूर्तकाल के द्रव्य प्रवेश आदि को 'व्यञ्जनावग्रह' रूप से मानना चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 251 // (अर्थावग्रह में सामान्य अर्थ का ग्रहण) उस अर्थ को वह किस रूप से ग्रहण करता है -इस आशंका (जिज्ञासा) को मन में रखकर भाष्यकार स्वतः ही उसके स्वरूप का निरूपण कर रहे हैं // 252 // सामन्नमणिद्देसं सरूव-नामाइकप्पणारहियं / जइ एवं जं तेणं गहिए सद्दे त्ति तं किह णु? // [(गाथा-अर्थ :) वह (एकसमयवर्ती अर्थावग्रह से गृहीत वस्तुस्वरूप) सामान्य, अनिर्देश्य, स्वरूप-नाम-जाति आदि की कल्पना से रहित होता है। (परपक्ष द्वारा प्रश्न-) यदि ऐसा है तो उस (अर्थावग्रह) से गृहीत को 'उसने शब्द ग्रहण किया' -यह जो (कथन) है, वह कैसे (संगत) है?] Na 370 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- -----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy