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________________ तस्माद् भो आचार्य! तस्य चक्षुषो विषयपरिमाणाऽनैयत्यमाप्नोति, इत्येतदेवाह विसयपरिमाणमनिययमपत्तविसयं ति तस्स मणसो व्व। मणसो वि विसयनियमो न कमइ जओ स सव्वत्थ // 246 // [संस्कृतच्छाया:-विषयपरिमाणमनियतम् अप्राप्तविषयम् इति तस्य मनस इव / मनसोऽपि विषयनियमः, न क्रामति यतः स सर्वत्र // ] विषयस्य ग्राह्यस्य परिमाणमनियतमपरिमितं प्राप्नोति तस्य चक्षुष इति प्रतिज्ञा / हेतुमाह- अप्राप्तविषयमिति कृत्वा / मनस इवेति दृष्टान्तः। प्रयोगः- यदप्राप्तमपि विषयं परिच्छिनत्ति, न तस्य तत्परिमाणं युक्तं, यथा मनसः, अप्राप्तं च विषयमवगच्छति च तस्माद् न तस्य तत्परिमाणं युक्तमिति। विषयसामान्ये)। जिसके लिए विषय अप्राप्त (अस्पृष्ट) होकर (भी) ज्ञात हो जाता है, उसे 'अप्राप्तविषय' कहते हैं, और उसका स्वरूप (भाव) ही 'अप्राप्तविषयता' है। जब (नेत्र में) अप्राप्तविषयता सामान्य यानी अविशेष स्वरूप है, उसके होने पर भी नेत्र किसी अर्थ को ग्रहण करता है और किसी को नहीं, तो इसमें क्या कारण (या नियामक हेतु) है? (अर्थात्) इसमें हमें तो कोई कारण दिखाई नहीं देता - -यह भाव है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 245 // इसलिए हे आचार्य! (अप्राप्यकारी मानने पर) उस नेत्र के विषय-परिमाण में अनियमितता (सर्वज्ञता) होने का दोष खड़ा होता है- इसी बात को पूर्वपक्ष कह रहा है (और जिसका निराकरण भी भाष्यकार यहीं कर रहे हैं) // 246 // विसयपरिमाणमनिययमपत्तविसयं ति तस्स मणसो व्व। मणसो वि विसयनियमो न कमइ जओ स सव्वत्थ // [(गाथा-अर्थ :) (शंका-) (अप्राप्तविषयम्) मन की तरह ही अप्राप्तविषय उस (नेत्र इन्द्रिय) के ग्राह्य विषयों का परिमाण भी असीमित होना चाहिए! (किन्तु ऐसा होता नहीं, ऐसा आखिर क्यों?) (उत्तर-) चूंकि मन भी सभी पदार्थों में संक्रमण नहीं करता, इसलिए मन के भी तो (ग्राह्य) विषय नियमित (सीमित) ही होते हैं (उसी तरह नेत्र इन्द्रिय के विषय में भी समझ लेना चाहिए)।] व्याख्याः- (नेत्र को अप्राप्यकारी मानने पर) उस नेत्र के ग्राह्य विषय का परिमाण अनियत, अपरिमित होने लगेगा -यह प्रतिज्ञा है। इसमें हेतु है- इसलिए कि वह अप्राप्तविषय (अप्राप्यकारी) है। इसमें दृष्टान्त है-मन की तरह। इस संदर्भ में युक्ति (या अनुमान-वाक्य) इस प्रकार है- जो भी (इन्द्रिय या अनिन्द्रिय) अप्राप्त (अस्पृष्ट) विषय को भी ज्ञेय बनाता है (अर्थात जानता है), उसके विषयों का परिमाण (परिमित या सीमित होना) युक्तियुक्त नहीं, जैसे मन / नेत्र इन्द्रिय भी अप्राप्त (अस्पृष्ट) होकर विषय का ज्ञान करती है, इसलिए उसके विषय के परिमाण को भी नियत (सीमित) मानना युक्तियुक्त नहीं। ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 359 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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