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________________ भवति मनोव्यापारः प्रथमादेव तेन समयात् / भवति तदर्थग्रहणं तदन्यथा न प्रवर्तेत // ] 'समए समए त्ति'। प्रतिसमयमित्यर्थः / इदमुक्तं भवति- मनोद्रव्यग्रहणशक्तिसंपन्नो जीवः कस्यचिदर्थस्य चिन्तावसरे प्रतिसमयं मनोद्रव्याणि गृह्णाति, तं च चिन्तनीयमर्थं प्रतिसमयं 'मुणइ त्ति' जानाति येन कारणेन, तेन प्रथमसमयादेव भवति तस्य चिन्तनीयार्थस्य ग्रहणमिति द्वितीयगाथायां संबन्धः, प्रथमसमयादेवाऽर्थावबोधः प्रवर्तत इत्यर्थः, अर्थानुपलब्धिकालस्त्वेकोऽपि समयो नास्ति, अतो न मनसो व्यञ्जनावग्रहसंभव इति भावः॥ आह- नन्वपवरकादिव्यवस्थितो यदेन्द्रियव्यापाररहित: केवलेन रपीमनसाऽर्थान् लोचयति, तदा मा भूद् मनसो व्यञ्जनावग्रहः, यस्तु श्रोत्रादीन्द्रियव्यापारे मनसोऽपि व्यापारस्तत्र प्रथममनुपलब्धिकालस्य भवद्भिरपीष्यमाणत्वात् किमिति व्यञ्जनाद् मनसो व्यञ्जनावग्रहो नेष्यते?, इत्याशङ्कयाह- 'जं चिंदिओवओगे वि वंजणावग्गहेऽतीते होइ वावारो त्ति'। यच्च यस्माच्च कारणादिन्द्रियस्य श्रोत्रादेरुपयोगेऽपि शब्दाद्यर्थग्रहणकालेऽपीत्यर्थः। किम्?, इत्याह- व्यञ्जनावग्रहेऽतीते ते मनसो व्यापारो भवति। व्याख्याः - (समये समये इति)। समय-समय में, अर्थात् प्रत्येक समय में / तात्पर्य यह है कि मनोद्रव्य को ग्रहण करने की शक्ति से सम्पन्न जीव किसी अर्थ का चिन्तन करते हुए, प्रत्येक समय में मनोद्रव्यों का ग्रहण करता रहता है, और (तभी) उस चिन्तित (चिन्तन के विषयभूत, चिन्त्यमान) पदार्थ को प्रत्येक समय जानता है। (वह इसीलिए जानता है) क्योंकि वह प्रथम समय से ही उस चिन्त्यमान अर्थ का ग्रहण करता है- इस प्रकार प्रथम गाथा का द्वितीय गाथा से सम्बन्ध (कर्तव्य) है, अर्थात् प्रथम समय से ही अर्थबोध चालू हो जाता है (यह कहा जा रहा है)। तात्पर्य यह है कि यहां अर्थानुपलब्धि-काल (व्यअनावग्रह रूप) तो कोई भी समय नहीं होता, अतः मन के व्यञ्जनावग्रह सम्भव नहीं होता। (शंका-) जब कोई किसी बन्द कमरे आदि में बैठा हो और इन्द्रिय-व्यापार से रहित होने से केवल मन से पदार्थों का चिन्तन-मनन करे, तो भले ही उसके मन का व्यअनावग्रह न हो, किन्तु जब श्रोत्र आदि इन्द्रियां कार्यरत हों, और साथ ही मन का भी व्यापार हो, वहां पहले अनुपलब्धिकाल का सद्भाव है- इसे तो आप भी मानते हैं। ऐसी स्थिति में व्यञ्जन से (उस समय होने वाले व्यअनावग्रह के कारण) मन के भी व्यअनावग्रह (के सद्भाव) को आप क्यों नहीं मानते? -इस शंका को मन में रख कर (भाष्यकार ने) कहा- (यच्च इन्द्रियोपयोगेऽपि व्यञ्जनावग्रहे अतीते भवति मनोव्यापारः -इति)। अर्थात् (इस कारण से नहीं मानते) क्योंकि श्रोत्रादि इन्द्रिय के उपयोग की स्थिति में भी, शब्दादि पदार्थों के ग्रहण करते हुए भी। (प्रश्न-) क्या होता है? उत्तर दिया- (व्यअनावग्रहे अतीते, मनोव्यापारो भवति) (अर्थात् व्यञ्जनावग्रह-काल बीत जाने पर ही, मन का व्यापार प्रारम्भ होता है, पहले नहीं) 354 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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