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________________ मनोद्रव्याण्यपि तर्हि मनसो ग्राह्याणि भविष्यन्ति, ततस्तस्याऽपि श्रोत्रादेरिव व्यञ्जनावग्रहो भविष्यति, अत: किमसंबद्धम्?, इत्याह- 'गहणं मणो न गिझं ति' चिन्ताद्रव्यरूपं मनो न ग्राह्यम्, किन्तु ग्रहणं गृह्यतेऽवगम्यते शब्दादिरर्थोऽनेनेति ग्रहणम्अर्थपरिच्छेदे करणमित्यर्थः / ग्राह्यं तु मेरुशिखरादिकं मनसः सुप्रतीतमेव। अत: को भागः कोऽवसरस्तस्य करणभूतस्य मनोद्रव्यराशेर्व्यञ्जने व्यञ्जनावग्रहेऽधिकृते?, न कोऽपीत्यर्थः। ग्राह्यवस्तुग्रहणे हि व्यञ्जनावग्रहो भवति। न च मनोद्रव्याणि ग्राह्यरूपतया गृह्यन्ते, किन्तु करणरूपतया, इत्यसंबद्धमेव परोक्तम्॥ इति गाथार्थः // 240 // या च 'देहादणिग्गयस्स वि सकायहिययाइयं' इत्यादिना मनसः प्राप्यकारिता प्रोक्ता, साऽपि न युक्ता, स्वकायहृदयादिको हि मनसः स्वदेश एव, यच्च यस्मिन् देशेऽवतिष्ठते, तत् तेन संबद्धमेव भवति, कस्तत्र विवादः?, किं हि नाम तद् वस्त्वस्ति, यदात्मदेशेनाऽसंबद्धम्? / एवं हि प्राप्यकारितायामिष्यमाणायां सर्वमपि ज्ञानं प्राप्यकार्येव, सर्वस्याऽपि तस्य जीवेन संबद्धत्वात्। तस्मात् पारिशेष्याद बाह्यार्थापेक्षयैव प्राप्यकारित्वाऽप्राप्यकारित्वचिन्ता युक्ता। स च मनसाऽप्राप्त एव गृह्यते, इति न तत्र व्यभिचारः। भवतु वा मनसः स्वकीयहृदयादिचिन्तायां प्राप्यकारिता, तथापि न तस्य व्यञ्जनावग्रहसंभव इति दर्शयन्नाह (शंका-) मनोद्रव्य भी तो मन के ग्राह्य होते ही हैं, तब श्रोत्र आदि इन्द्रियों की तरह उस मन का भी व्यअनावग्रह (संगत) हो (ही) जाता है, इसलिए हमारा कथन असम्बद्ध कैसे हुआ? (इस आशंका को दृष्टि में रख कर) उत्तर दिया- (ग्रहणं मनः, न ग्राह्यम्) / अर्थात् चिन्तन-द्रव्य रूप मन ग्राह्य (विषय) नहीं है, किन्तु ‘ग्रहण' है। 'ग्रहण' का अर्थ है- जिसके द्वारा शब्द आदि अर्थ का ग्रहण किया जाता है, अर्थात् जो अर्थ-ज्ञान में (प्रमुख) कारण होता है। मन के मेरु-शिखर आदि ग्राह्य हैंयह तो सुस्पष्ट (सुविदित) ही है। इसलिए, उस (अर्थज्ञान में) करणभूत मनोद्रव्यराशि का 'व्यञ्जन' में, अर्थात् प्रस्तुत विषय- व्यञ्जनावग्रह (के सद्भाव) में कौन (सा) भाग यानी अवसर होता है? अर्थात् कोई भी अवसर (औचित्य) नहीं है। (तात्पर्य यह है कि) व्यअनावग्रह तब होता है जब ग्राह्य वस्तु का ग्रहण (स्पर्श) हो, किन्तु मनोद्रव्यों का जो ग्रहण (स्पर्श) होता है, वह ग्राह्य वस्तु रूप से नहीं होता, अपितु 'करण' रूप से होता है। इस तरह पूर्वपक्ष का कथन असम्बद्ध (अप्रासंगिक, अनुपयुक्त) है // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 240 // "(पूर्व की 239 वीं गाथा में पूर्वपक्ष द्वारा) 'देहाद् अनिर्गतस्यापि स्वकायहृदयादिकम्' इत्यादि रूप में मन की जो प्राप्यकारिता बताई गई थी, वह युक्तियुक्त नहीं है, चूंकि स्वशरीरस्थ हृदय आदि तो मन के 'स्वदेश' ही हैं और जो जिस देश में स्थित होता है, उससे वह सम्बद्ध होता ही है, इसमें कौन-सा विवाद है? (अर्थात् यह निर्विवाद ही है।) ऐसी कौन-सी वस्तु है जो आत्म-देश से सम्बद्ध न . हो? इस प्रकार से यदि प्राप्यकारिता इष्ट है, तब (तो फिर सभी ज्ञान प्राप्यकारी ही सिद्ध हो जाएंगे, क्योंकि सभी ज्ञान जीव से जुड़े (सम्बद्ध) होते ही हैं। (सभी ज्ञानों के प्राप्यकारी हो जाने से, प्राप्यकारी-अप्राप्यकारी की विवेचना ही सम्भव नहीं होगी, अतः उस विवेचना की संगति बैठाना है) इसलिए (स्वशरीरादि-सम्बन्ध की अपेक्षा को छोड़ना होगा, और तब बाह्यार्थ सम्बन्ध की अपेक्षा ही शेष रहती है, अतः) 'पारिशेष्य' न्याय से प्राप्यकारिता व अप्राप्यकारिता का विचार बाह्य पदार्थ की ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 351
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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