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________________ . आह- ननु स्त्यानर्द्धिनिद्रोदये वर्तमानस्य द्विरददन्तोत्पाटनादिप्रवृत्तस्य स्वप्ने मनसः प्राप्यकारिता, तत्पूर्वको व्यञ्जनावग्रहश्च सिद्ध्यति / तथाहि- स तस्यामवस्थायां द्विरददन्तोत्पाटनादिकं सर्वमिदमहं स्वप्ने पश्यामि' इति मन्यते, इत्ययं स्वप्नः, मनोविकल्पपूर्विकां च दशनाद्युत्पाटनक्रियामसौ करोति / इति मनसः प्राप्यकारिता, तत्पूर्वकश्च मनसो व्यञ्जनावग्रहो भवत्येव, इत्याशक्याह सिमिणमिव मन्नमाणस्स थीणगिद्धिस्स वंजणोग्गहया। होज व, न उसा मणसो (सा) खलु सोइंदियाईणं॥२३४॥ [संस्कृतच्छाया:- स्वप्नमिव मन्यमानस्य स्त्यानगृद्धेः व्यञ्जनावग्रहता। भवेद् वा, न तु सा मनसः, (सा) खलु श्रोत्रेन्द्रियादीनाम्॥] 'होज्ज व' इत्यत्र वाशब्दः पुनरर्थे, तस्य च व्यवहितः संबन्धः कार्यः, तद्यथा- अनन्तरोक्तयुक्तिभ्यः स्वप्नावस्थायामपि विषयप्राप्त्यभावाद् मनसो व्यञ्जनावग्रहो नास्ति, स्त्यानगृद्धेः पुनः स्त्यानगृद्धिनिद्रोदये पुनर्वर्तमानस्य जन्तोरित्यर्थः, मांसभक्षणदशनोत्पाटनादि कुर्वतो गाढनिद्रोदयपरवशीभूतत्वेन स्वप्नमिव मन्यमानस्य भवेद् व्यञ्जनावग्रहता--स्याद् व्यञ्जनावग्रह इत्यर्थः, न (स्त्यानर्द्धि निद्रा के दृष्टान्त) (मन की प्राप्यकारिता के समर्थन में पूर्वपक्षी द्वारा पुनः) शंका का उपस्थापन- “स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदय में विद्यमान (व्यक्ति का) मन स्वप्न में हाथी के दांत को उखाड़ने में प्रवृत्त होता है, तब उसकी प्राप्यकारिता और व्यअनावग्रह का होना भी सिद्ध होता है। और, वह (स्वप्नस्थ व्यक्ति) उस स्थिति में यह भी मानता है कि 'हाथी के दांत को उखाड़ने आदि की समस्त क्रियाओं को मैं स्वप्न में देख (कर) रहा हूं' और 'यह स्वप्न है'। वह मानसिक विकल्प पूर्वक दांत आदि उखाड़ने की क्रिया करता है। इस प्रकार, मन की प्राप्यकारिता (स्पष्ट) है, और उसके कारण मन का व्यञ्जनावग्रह भी होता है" -इस आशंका को दृष्टि में रख कर (भाष्यकार प्रत्युत्तर रूप में) कह रहे हैं // 234 // सिमिणमिव मन्नमाणस्स थीणगिद्धिस्स वंजणोग्गहया। होज्ज व, न उ सा मणसो (सा) खलु सोइंदियाईणं // - [(गाथा-अर्थ :) स्त्यानगृद्धि (निद्रा) में (विद्यमान) तथा (अनुभूत घटनाओं को) स्वप्न की तरह मान रहे व्यक्ति को व्यञ्जनावग्रह हो सकता है, किन्तु वह मन का नहीं, अपितु श्रोत्र आदि इन्द्रियों का होता है।] - व्याख्याः - (भवेद् वा)। यहां आया 'वा' पद 'किन्तु' अर्थ में प्रयुक्त है, इसलिए (पूर्वकथन से) पृथक् (व्यवहित) सम्बन्ध करना चाहिए (अर्थात् आगे के कथन का पूर्वकथन से विपरीत अर्थ प्रारम्भ करना चाहिए)। जैसे- तुरन्त पूर्व में कही हुई युक्तियों से स्वप्न अवस्था में भी मन का व्यञ्जनावग्रह नहीं है, क्योंकि विषय की प्राप्ति (विषय-स्पर्श) उसे नहीं होती, किन्तु स्त्यानगृद्धि में यानी स्त्यानगृद्धि निद्रा के उदय में वर्तमान प्राणी के, मांस-भक्षण व दांत उखाड़ने आदि क्रियाओं को करते हुए, चूंकि वह गाढ़ निद्रा के परवश होने के कारण, (समस्त क्रियाओं को) स्वप्न की तरह मान ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 341
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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