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________________ किञ्च, सर्वगतत्वे पुरुषस्य नानादेशगतस्रक्-चन्दनाङ्गनादिसंस्पर्शेऽनवरतसुखासिकाप्रसङ्गः, वह्नि-शस्त्र-जलादिसम्बन्धे तु निरन्तरदाहपाटन-क्लेदनादिप्रसङ्गश्च। यत्रैव शरीरं तत्रैव सर्वमिदं भवति, नाऽन्यत्रेति चेत्। कुतः?, इति वक्तव्यम्। आज्ञामात्रादेवेति चेत्। न, तस्येहाविषयत्वात्। सहकारिभावेन तस्य तदपेक्षणीयमिति चेत्।न, नित्यस्य सहकार्यपेक्षाऽयोगात्, तथाहि- अपेक्ष्यमाणेन सहकारिणा तस्य कश्चिद् विशेषः क्रियते, न वा? / यदि क्रियते, स किमर्थान्तरभूतः, अनर्थान्तरभूतो वा? / यद्याद्यः पक्षः, तर्हि तस्य न किञ्चित् कृतं स्यात्। अथापरः, तर्हि तत्करणे तदव्यतिरिक्तस्याऽऽत्मनोऽपि करणप्रसङ्गात्, कृतस्य चाऽनित्यत्वात् तस्याऽनित्यत्वप्रसङ्गः। स्थिति में) वह वेदना सर्वत्र होने लगेगी, किन्तु ऐसा होता नहीं, क्योंकि वैसी अनुभूति नहीं होती, और यदि किसी के अनुभूत न होने पर भी उसका सद्भाव माना जाय तो (अनेक) अतिप्रसंग (अतिव्याप्ति) दोष उठ खड़े होंगें। और (दूसरी बात), पुरुष यदि सर्वव्यापी है तो नाना देशों में स्थित पुष्पमाला, चंदन, महिलाओं आदि के स्पर्श से अनवरत सुख होना प्रसक्त होगा (वैसा सुख होने लगेगा), (इसी प्रकार) अग्नि, शस्त्र, जल आदि के सम्बन्ध (स्पर्श) से निरन्तर दाह होने, चीरे जाने, एवं गीला होने आदि की (भी) स्थिति होने लगेगी। (पूर्वपक्षी की ओर से सम्भावित समधान-) हमारा कहना यह है कि जहां शरीर होता है, वहीं (प्राप्त-स्पृष्ट पदार्थों की) वह सब (वेदना या अनुभूति) होती है, अन्यत्र नहीं (अतः सर्वत्र स्थित पदार्थों के स्पर्श न होने से पूर्वोक्त समस्त अनुभूति होने का दोष निरस्त हो जाता है)। (भाष्यकार द्वारा पूर्वपक्षी के समाधान पर दोषारोपण-) किन्तु आपको यह (भी तो) स्पष्ट करना चाहिए कि ऐसा क्यों होता है कि जहां शरीर की स्थिति होती है, वहीं दाह आदि की अनुभूति होती है (अन्यत्र नहीं)? मात्र आत्मीय आज्ञा से ही ऐसा सम्भव मानें तो वह भी सम्भव नहीं, क्योंकि यह सब 'ईहा' का विषय है (और ईहा एक क्रिया है जो निष्क्रिय पुरुष में कैसे सम्भव है?) यदि (आप पूर्वपक्षी) ऐसा कहें कि शरीर (वेदना आदि में) सहकारी कारण है, अतः शरीर की अपेक्षा रहती ही है, तो वह (कथन) भी ठीक नहीं, क्योंकि नित्य पदार्थ (भावमन) के लिए किसी सहकारी (कारण) की अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। और यह भी (प्रश्न है) कि अपेक्षित सहकारी कारण द्वारा उस (भावमन) का कोई 'विशेष (परिणमन आदि) किया जाता है या नहीं? यदि किया जाता है तो यह स्पष्ट करें कि वह 'विशेष' अन्य पदार्थ का किया जाता है या उसी (अनर्थान्तरभूत, भावमन) का? यदि आप प्रथम पक्ष अंगीकार करते हैं (कि विशेषरूपता भावमन से अन्य पदार्थ में होती है) तो उस (सहकारी कारण) ने भावमन का क्या 'विशेष' किया? (तब सहकारी कारण की भावमन के लिए किस प्रयोजन हेतु अपेक्षा की जाती है?) और यदि दूसरा पक्ष स्वीकारते हैं (कि विशेषरूपता 'भावमन में ही होती है) तो भावमन से अभिन्न आत्मा में ही 'विशेषरूपता' सम्पादित होगी, और चूंकि ‘कृत' अनित्य होता है, इसलिए विशेषीकृत आत्मा की अनित्यता प्रसक्त होगी (जो आपके सिद्धान्त से विरुद्ध होगी)। --- विशेषावश्यक भाष्य ---- 317
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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