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________________ [संस्कृतच्छाया:- द्रव्यं भावमनो वा व्रजेद् जीवश्च भवति भावमनः। देहव्यापित्वाद् न देहबहिस्ततो युक्तः॥] . इह मनस्तावद् द्विधा- द्रव्यमनः, भावमनश्चेति। अतः सूरिः परं पृच्छति-'दव्वं ति'। द्रव्यमनः, भावमनो वा व्रजेद् गच्छेत् 'मेर्वादिविषयसन्निधौ' इति गम्यते। किमनेन पृष्टेन? इति चेत् / उभयथाऽपि दोषः, तथाहि- भावमनसश्चिन्ताज्ञानपरिणामरूपत्वात्, तस्य च जीवादव्यतिरिक्तत्वाज्जीव एव भावमनो भवति। जीवश्चेति चकार: तओ इत्यस्यानन्तरं सम्बन्धनीयः। ततोऽयमर्थ:- सकश्च स च भावमनोरूपो जीवो देहमात्रव्यापित्वाद् न देहाद् बहिनि:सरन् युक्तः। इह ये देहमात्रवृत्तयः, न तेषां बहिर्नि:सरणमुपपद्यते, यथा तद्गतरूपादीनाम्, देहमात्रवृत्तिश्च जीवः॥ इति गाथार्थः॥२१५ // देहमात्रव्यापित्वस्याऽसिद्धिं मन्यमानस्य परस्य मतमाशङ्कमानः सूरिराह सव्वगउ त्ति य बुद्धी, कत्ताभावाइदोसओ तण्ण। सव्वासव्वग्गहणप्पसंगदोसाइओ वा वि॥२१६॥ [संस्कृतच्छाया:-सर्वगत इति च बुद्धिः, कञभावादिदोषतस्तन्न। सर्वासर्वग्रहणप्रसङ्गादितो वाऽपि॥] [(गाथा-अर्थ :) द्रव्यमन या भानमन ही (ज्ञेय पदार्थ से सम्पृक्त होने हेतु) जाएगा। इनमें भावमन तो जीव (ही) है। वह देह में व्याप्त होकर रहता है, इसलिए उस (भावमन) का देह से बाहर होना युक्तियुक्त नहीं होता। ] व्याख्याः- मन दो (ही) प्रकार का होता है- द्रव्यमन और भावमन / इसलिए भाष्यकार पूछ रहे हैं- (द्रव्यं भावमनः)। यह पूछने का क्या प्रयोजन है? (ऐसा पूछने पर हमारा कहना है-) (मन के) दोनों प्रकारों में (मन की प्राप्यकारिता में) दोष सम्भावित है। उदाहरणार्थ- भावमन तो चिन्ता ज्ञान-परिणति रूप होता है। वह जीव से अभिन्न होता है, इसलिए भावमन जीव ही सिद्ध होता है। यहां 'जीवाश्च' में आए हुए 'च' पद का 'ततः' पद के बाद अन्वय करना चाहिए, फलस्वरूप यह अर्थ होगा- भावमन रूप जीव समस्त देह में व्याप्त होकर रहता है, उसका देह से बाहर निकलना युक्तियुक्त नहीं ठहरता। जिनका देहमात्र में सद्भाव रहता है, जैसे कि (देहव्यापी) जीव के रूप आदि, उनका (देह के) बाहर जीव (भावमन) भी देहमात्रवृत्ति है (इसलिए उसका भी बाहर निकलना संगत नहीं) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 215 // पूर्वपक्षी भावमन को कहीं देहव्यापी ही स्वीकार न कर ले -इस आशंका से भाष्यकार कह रहे हैं // 216 // सव्वगउ त्ति य बुद्धी, कत्ताभावाइदोसओ तण्ण। सव्वासव्वग्गहणप्पसंगदोसाइओ वा वि // [ (गाथा-अर्थ :) (आत्मा या भावमन) सर्वगत (सर्वव्यापी) है- यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि (वैसा मानने पर, आत्मा के) कर्तृत्व (व भोक्तृत्व आदि) के अभाव होने का दोष सम्भावित Ma 314 ---- ---- विशेषावश्यक भाष्य -----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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