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________________ नैतदेवम्, अभिप्रायाऽपरिज्ञानात्, यतः प्रथमत एव विषयपरिच्छेदमात्रकालेऽनुग्रहोपघातशून्यता हेतुत्वेनोक्ता, पश्चात्तु चिरमवलोकयतः प्रतिपत्तुः प्राप्तेन रविकरादिना, चन्द्रमरीचि-नीलादिना वा मूर्तिमता निसर्गत एव केनाऽप्युपघातकेन, अनुग्राहकेण च विषयेणोपघाताऽनुग्रहौ भवेतामपीति। एतदेवाह- पत्तेण उ मुत्तिमयेत्यादि। अनेनाऽभिप्रायेण तौ पुनरपि समनुज्ञायेते, न पुनर्विस्मरणशीलतया। यदि पुनर्विषयपरिच्छित्तिमात्रमपि तमप्राप्य चक्षुर्न करोतीति नियम्यते, तदा वह्नि-विष-जलधि-कण्टक करवाल-करपत्र-सौवीराञ्जनादिपरिच्छित्तावपि तस्य दाह-स्फोट-क्लेद-पाटन-नीरोगतादिलक्षणोपघाताऽनुग्रहप्रसङ्गः। न हि - समानायामपि प्राप्तौ रविकरादिना तस्य भवन्ति दाहादयः, न वयादिभिः। तस्माद् व्यवस्थितमिदम्-विषयमप्राप्यैव चक्षुः परिच्छिनत्ति, अञ्जन-दहनादिकृता- नुग्रहोपघातशून्यत्वात्, मनोवत्। परिच्छेदानन्तरं तु पश्चात्प्राप्तेन केनाऽप्युपघातकेन, अनुग्राहकेण वा मूर्तिमता द्रव्येण तस्योपघाताऽनुग्रहौ न निषिध्येते, विष-शर्करादिभक्षणे मूर्छा-स्वास्थ्यादय इव मनस इति // (चक्षु की अप्राप्यकारिता के समर्थन में उत्तर-) ऐसी (विस्मरणशीलता व परस्पर विरुद्ध कथन वाली) कोई बात नहीं है। (वस्तुतः) आपने हमारे (दोनों कथनों के) अभिप्राय को ही नहीं जाना है, क्योंकि हमने पहले तो (यदनुग्रहादिशून्यत्व) हेतु के आधार पर यह बताया है कि विषय (रूपादिमान् व नेत्रग्राह्य) के (रूप दर्शन) के समय ही (नेत्र) अनुग्रह व उपघात से रहित होता है, किन्तु बाद में चिरकाल तक देखते रहने पर, द्रष्टा (ज्ञाता) को सूर्यकिरणें प्राप्त (स्पृष्ट) करती हैं तब, उन (सूर्यकिरणों) से, तथा मूर्तिमान् (भौतिक) चन्द्रकिरण व नील वस्त्र आदि पदार्थों को देखते रहने पर उनसे, इसी प्रकार किसी न किसी उपघातक या अनुग्राहक 'विषय' द्वारा स्वभावतः (नेत्र के) उपघात व अनुग्रह भी हो (सक)ते हैं। इसी बात को (भाष्यकार) कह रहे हैं- (प्राप्तेन तु मूर्तिमता)। इसी (उक्त) अभिप्राय से (नेत्र इन्द्रिय के) उन (उपघात व अनुग्रह) का समर्थन किया गया है, अपने पूर्वकथन को भूल जाने का स्वभाव इसमें कारण नहीं है। यदि हम ऐसा (उत्तरवर्ती) कथन न करें कि नेत्र इन्द्रिय उस विषय को बिना स्पृष्ट किये विषयज्ञान (रूपदर्शन) नहीं करती- ऐसा नियम (स्वपक्ष कथन) करें, तो अग्नि, विष, समुद्र, कण्टक, तलवार, आरा, सुरमा आदि के ज्ञान (दर्शन) में उस (नेत्र इन्द्रिय) का जल जाना, फट जाना, गीला हो जाना, टुकड़े-टुकड़े हो जाना व नीरोगता आदि उपघात या अनुग्रह का सद्भाव मानना पड़ेगा (किन्तु वहां वस्तुतः उपघात या अनुग्रह होता नहीं)। एक जैसी स्थिति में (की गई) (रूप-) दर्शन की प्रक्रिया हो, तो सूर्यकिरणों से तो नेत्र का दाह आदि उपघात हो और अग्नि आदि से नहीं हो- ऐसा नहीं होता। इसलिए, सिद्धान्त यही तय हुआ कि नेत्र इन्द्रिय (अपने) विषय को बिना स्पृष्ट किये ही देखती-जानती है, वह अंजन व अग्नि आदि के कारण होने वाले अनुग्रह या उपघात (दोनों) से रहित (ही) होती है, जैसे कि मन (उपघात आदि से रहित होता है)। (हां, रूप) दर्शन के बाद (ऐसा हो सकता है कि) किसी भी उपघातक या अनुग्राहक मूर्तिमान् द्रव्य द्वारा उस (नेत्र) का उपघात या अनुग्रह हो जाए- इसका निषेध हम नहीं करते। (क्योंकि) जैसे विष, शर्करा (चीनी) के भक्षण से (अप्राप्यकारी) मन की भी क्रमशः मूर्छा या स्वस्थता होती देखी जाती है, उसी तरह (नेत्र इन्द्रिय का उपघात या अनुग्रह होना असम्भव नहीं)। -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- 309
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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