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________________ ननु शब्द-गन्धावपि श्रोत्र-घ्राणे कुतः प्राप्तुतः?, इत्याह- 'जंते पोग्गलमइया सक्किरिय त्ति'। यद् यस्मात्कारणात् तौ , शब्द-गन्धौ सक्रियौ गत्यादिक्रियावन्तौ, तस्मादन्यत आगत्य श्रोत्र-घ्राणे प्राप्तुतः। कथम्भूतौ सन्तौ सक्रियौ तौ?, इत्याह-पुद्गलमयौ। यदि पुनरपौद्गलिकत्वादमूर्ती स्याताम्, तदा यथा जैनमतेन अक्रियेष्वाकाशादिषु गतिक्रिया नास्ति, तथैतयोरपि न स्यात्, इत्यालोच्य पुद्गलमयत्वविशेषणमकारि, पुद्गलमयत्वे सति सक्रियाविति भावः / यच्चैवम्भूतम्, तत्र गतिक्रियाऽस्त्येव, यथा पुद्गलस्कन्धेष्विति॥ आह- ननु पुद्गलमयत्वेऽपि सति शब्द-गन्धयोर्गतिक्रियाऽस्तीति कुतो निश्चीयते?, इत्याह- 'वाउवहणाओ धूमो व्व त्ति'। वायुना वहनं नयनं वायुवहनं तस्मात् / इदमुक्तं भवति- यथा पवनपटलेनोह्यमानत्वाद् धूमो गतिक्रियावान्, एवं शब्द-गन्धावपि तेनोह्यमानत्वात् तद्वन्तौ / तथा, संहरणतो गृहादिषु पिण्डीभवनाद् धूमवदेव क्रियाभाजौ तौ। तथा, विशेषेण द्वारानुविधानतस्तोयवत् . तद्वन्तावेतौ। तथा, पर्वतनितम्बादिषु प्रतिघातात् प्रतिस्खलनाद्वायुवदेतौ गतिक्रियाऽऽश्रयौ। इति गाथाद्वयार्थः // 206 // 207 // जाकर उन्हें (शब्द व गन्ध को) नहीं ग्रहण करतीं, क्योंकि श्रोत्र व घ्राण इन्द्रिय का- (अन्य इंद्रियों) स्पर्श (त्वचा) व रसना की तरह ही- आत्मा (शरीर) से बाहर होना (पृथक् होकर अन्यत्र जाना-. आना) नहीं होता। यहां 'शब्दगन्धौ' (शब्द व गन्ध) यह पद उपर्युक्त दोनों (अभिमत पक्ष, अस्वीकार्य मत) कथनों में विभक्ति का व्यत्यय (विभक्ति-परिवर्तन) करते हुए वाक्य में नियोजित होता है (प्रथम कथन ‘पक्ष' में कर्ता अर्थ की वाचक प्रथमा-द्विवचन विभक्ति है, तो दूसरे अस्वीकृत पक्ष में वह कर्मवाचक द्वितीया-द्विवचन विभक्ति है, यहीं विभक्ति-व्यत्यय है)। (शंका-) शब्द व गन्ध भी (किस प्रकार चल कर) श्रोत्र व घ्राण इन्द्रिय को प्राप्त करते हैं? उत्तर दिया- (यत् तौ पुद्गलमयौ, सक्रियौ)।चूंकि वे शब्द व गन्ध सक्रिय -गति आदि क्रिया वाले हैं, अतः वे अन्य प्रदेश से आकर श्रोत्र व घ्राण इन्द्रिय को प्राप्त कर लेते हैं। (शंका-) किस रूप में आकर वे सक्रिय होते हैं? उत्तर दिया- (पुद्गलमयौ)। यदि वे अपौद्गलिक हों तो अमूर्त भी हो सकते थे, तब जैन मतानुसार अक्रिय आकाश आदि में जैसे गति क्रिया नहीं है, उसी तरह ये भी क्रियाहीन हो सकते थे -इस तथ्य को दृष्टि में रखकर सक्रिय के साथ पुद्गलमय विशेषण भी दिया। तात्पर्य यह है कि वे पुद्गलमय होने के साथ-साथ सक्रिय (भी) हैं। अब, जो वैसा (पुद्गलमय व सक्रिय-दोनों) है, उसमें गति-क्रिया वैसे ही है जैसे पौद्गलिक स्कन्धों में होती है। (शंका-) पुद्गलमय होने पर भी शब्द व गन्ध में गति क्रिया है- ऐसा कैसे निश्चित होता है? उत्तर दिया- (वायुवहनाद् धूम इव)। वायु द्वारा वहन किये जाने से / तात्पर्य यह है कि जैसे वायुपटल (साधनभूत वायु-स्कन्ध) द्वारा वहन किया जाता हुआ धुंआ गति क्रिया से युक्त हो जाता है, उसी प्रकार शब्द व गन्ध भी उस (वायु) के द्वारा वहन किये जाने पर गतिक्रिया से युक्त हो जाते हैं। इसी तरह, जैसे धुंआ किसी घर आदि में संहरण अवस्था में आने से, (किसी गृह आदि में) पिण्डीभूत (घनीभूत) हो जाता है, उसी तरह ये भी क्रियावान् हैं। इसी तरह, जैसे वायु पर्वत-नितम्ब (पर्वत की तलहटी, निचले भाग) आदि में टकराकर प्रतिस्खलित होता है (दिशा-परिवर्तन आदि कर लेता है), वैसे ही ये (शब्द व गन्ध) भी गति क्रिया वाले हो जाते हैं / यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 206-207 // Na 302 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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