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________________ हृदयं मनो गोचर: स्थानं यस्य तद् हृदयगोचरं अध्यवसायनिकुरम्बं' इति गम्यते, तज्जाग्रदपि छद्मस्थः सर्वमपरिशेषं न जानाति- न संवेदयते, आस्तां पुनः सुप्तः। कुतः?, इत्याह- अध्यवसानानि- अध्यवसायस्थानरूपाणि केवलिगम्यानि सूक्ष्माणि, यत एकेनाऽप्यन्तर्मुहूर्तेनाऽसंख्येयानि यान्त्यतिक्रामन्ति, किं पुनःसर्वेणापि दिवसेन?। न चैतानि छद्मस्थ: सर्वाण्यपि संवेदयते। ततश्च यथैतानि छद्मस्थैरसंवेद्यमानान्यपि केवलिदृष्टत्वात् सत्त्वेनाऽभ्युपगम्यन्ते, तथा व्यञ्जनावग्रहज्ञानमपि // इति गाथार्थः // 199 // आह- ननु सुप्तादीनां ज्ञानं वचनादिचेष्टाभ्यो गम्यत इत्युक्तम्, तत्तावदभ्युपगच्छामः, व्यञ्जनावग्रहे तु ज्ञानरूपतागमकं लिङ्गं न किञ्चिदुपलभामहे, अतो जडरूपत्वाद् नासौ ज्ञानमिति ब्रूमः, इत्याशङ्क्याह जइ वऽण्णाणमसंखेजसमइसद्दाइदव्वसम्भावे। किह चरमसमयसद्दाइदव्वविण्णाणसामत्थं? // 200 // व्याख्याः - हृदय कहें या मन कहें (एक ही बात है), वह जिसका गोचर या उद्भवस्थान है, वह 'हृदयचगोचर' कहलाता है। यहां 'हृदयगोचर' शब्द से 'अध्यवसाय-समूह' अर्थ समझना चाहिए। उस सारे के सारे हृदयगोचर (अध्यवसाय-समूह) को छद्मस्थ व्यक्ति जागता हुआ भी नहीं जानता, तब फिर सोये हुए व्यक्ति की तो बात ही क्या है (वह तो जान ही कैसे सकता है)? (प्रश्न-) ऐसा कैसे? उत्तर दिया- (यत् तदध्यवसानानि)। अध्यवसाय-स्थान तो केवलिगम्य हैं (केवली-सर्वज्ञ द्वारा ही सारे जाने जा सकते हैं) और (वे इतने) सूक्ष्म हैं कि एक अन्तर्मुहूर्त में ही असंख्येय हो जाते हैं, संख्येय से परे हो जाते हैं, पूरे दिन के अध्यवसान-स्थानों की तो बात ही क्या? छद्मस्थ इन सभी अध्यवसानों को नहीं जान पाता। इसलिए, छद्मस्थों द्वारा असंवेद्यमान होने पर भी, केवलिगम्य होने के आधार पर उनका सद्भाव माना जाता है, वैसे ही व्यञ्जनावग्रह ज्ञान का अस्तित्व माना जाता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 199 // (व्यअनावग्रह के प्रत्येक समय में तथा समुदाय में ज्ञान-मात्रा) शंकाकार ने कहा- 'सोये हुए आदि लोगों के ज्ञान (के अस्तित्व) को उनके वचन आदि (कायिक) चेष्टाओं से जाना जाता है'- यह जो आपने कहा, उसे चलो, हम मान लेते हैं। किन्तु व्यञ्जनावग्रह में तो कोई लिङ्ग (साधक हेतु जिसके आधार पर अनुमान ज्ञान किया जा सके) हमें तो नहीं मिलता, ऐसी स्थिति में व्यअनावग्रह के जड़रूप होने से वह ज्ञानरूप नहीं है- ऐसा हमारा मानना है। उक्त शंका को दृष्टिगत रखकर भाष्यकार कह रहे हैं // 200 // जइ वऽण्णाणमसंखेज्जसमइसद्दाइदव्वसब्भावे / किह चरमसमयसद्दाइदव्वविण्णाणसामत्थं?॥ Mar 292 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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