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________________ यद्यव्यक्तम्, कथं तदस्तीति ज्ञायते? इति चेत्। मा त्वरिष्ठाः, 'जइ वण्णाणमसंखेजसमइसहाइदव्वसम्भावे' इत्यादिनाऽनन्तरमेव तदस्तित्वयुक्तेर्वक्ष्यमाणत्वात्। दृष्टान्ते तु ज्ञानाभावेऽविप्रतिपत्तिरिति दर्शयन्नाह- बधिरादीनाम्। आदिशब्दादुपहतघ्राणादीन्द्रियाणां पुनः स व्यञ्जनावग्रहोऽज्ञानं ज्ञानं न भवतीत्यत्राऽविप्रतिपत्तिरेव / कुतः?, इत्याह- तच्च तदुभयं च तदुभयं तस्याऽभावाज्ज्ञानकारणत्वाभावात्, अव्यक्तस्याऽपि च ज्ञानस्याऽभावात् // इति गाथार्थः।। 196 // अथ पुनरप्याक्षेपं, परिहारं चाभिधित्सुराह कहमव्वत्तं नाणं च सुत्त-मत्ताइसुहुमबोहो व्व। सुत्तादओ सयं वि य विनाणं नावबुझंति॥१९७॥ [संस्कृतच्छाया:- कथमव्यक्तं ज्ञानं च सुप्त-मत्तादिसूक्ष्मबोध इव। सुप्तादयः स्वयमपि च विज्ञानं नावबुध्यन्ते // ] (प्रश्न-) यदि वह अव्यक्त है तो उसके अस्तित्व को कैसे जानते है? (उत्तर-) जल्दबाजी न करें (जरा धीरज रखें)। उस (ज्ञान) के अस्तित्व के सम्बन्ध में युक्ति का कथन आगे ही (आने वाली) 'यदि वाऽज्ञानम्' गाथा (सं. 200) द्वारा किया जा रहा है। किन्तु (बधिर आदि के) दृष्टान्त में ज्ञानाभाव को लेकर कोई मतभेद नहीं है- इसे स्पष्ट करने हेतु कहा- (बधिरादीनाम्) आदि शब्द से (बधिरों की तरह) उपहंत (सदोष, विनष्ट या अक्षम) घ्राणादि इन्द्रिय वालों का भी यहां ग्रहण करना अभीष्ट है। बधिर आदि का जो व्यञ्जनावग्रह होता है, वह तो अज्ञान ही है, ज्ञान नहीं है- इस विषय में (हमारा) कोई मतभेद नहीं हैं। (प्रश्न-) किस कारण से (ऐसा कह रहे हैं)? उत्तर दिया- तदुभयाभावात् / क्योंकि वहां बधिर आदि (के व्यअनावग्रह) में उस ज्ञानकारणता का और साथ ही उसकी अव्यक्तज्ञानरूपता -दोनों का (ही) असद्भाव है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 196 // - अब (व्यञ्जनावग्रह की अव्यक्तता व ज्ञानरूपता के विषय में) आक्षेप तथा उसके परिहार का कथन, कर रहे हैं // 197 // कहमव्वत्तं नाणं च सुत्त-मत्ताइसुहमबोहो व्व / सुत्तादओ सयं वि य विन्नाणं नावबुज्झंति // . [(गाथा-अर्थ :) (शंका की जा रही है-) ज्ञान भी हो और अव्यक्त हो -ऐसा कैसे? (उत्तर दिया जा रहा है-) सोये हुए, नशे में चूर, (एवं मूर्छित) आदि व्यक्तियों के सूक्ष्म ज्ञान की तरह (व्यञ्जनावग्रह अव्यक्त ज्ञान रूप है)। सोये हुए आदि व्यक्ति (अपने स्वकीय अतिसूक्ष्म) ज्ञान को स्वयं भी संवेदन नहीं करते हैं (फिर भी उनमें ज्ञान की सत्ता तो है ही)।] . -- विशेषावश्यक भाष्य ---- 289 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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