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________________ तं चिय सयत्थहे ऊववत्तिवावारतप्परममोहं। भूयाऽभूयविसेसायाण-च्चायाभिमुहमीहा॥१८४॥ [संस्कृतच्छाया:- यदनेकार्थालम्बनमपर्युदासपरिकुण्ठितं चित्तम्। शेत इव सर्वात्मतस्तत् संशयरूपमज्ञानम् // 183 // तदेव सदर्थहेतूपपत्तिव्यापारतत्परममोघम्। भूताऽभूतविशेषाऽऽदान-त्यागाभिमुखमीहा // 184 // ] / यच्चित्तं यन्मनोऽनेकार्थालम्बनमनेकार्थप्रतिभासाऽऽन्दोलितम्, अत एव पर्युदसनं पर्युदासो निषेधो न तथाऽपर्युदासोऽनिषेधस्तेन, तथोपलक्षणत्वादविधिना च परिकुण्ठितं जडीभूतं सर्वथाऽवस्तुनिश्चयरूपतामापन्नम्, किं बहुना? 'सेय इवेत्यादिशेत इव स्वपितीव सर्वात्मना न किञ्चिच्चेतयते, वस्त्वप्रतिपत्तिरूपत्वात्, तदेवंविधं चित्तं संशय उच्यत इत्यर्थः, तच्चाऽज्ञानम्, ||184 // तं चिय सयत्थहेऊववत्तिवावारतप्परममोहं / भूयाऽभूयविसे सायाण-चायाभिमुह मीहा // [(गाथा-अर्थ :) अनेक पदार्थ (-कोटियों) का आलम्बन करने वाला, (किसी भी कोटि के) निषेध (के साधक) के न होने से परिकुण्ठित (जड़वत् स्थित) जो चित्त (की स्थिति) है, वह, चूंकि सर्वतोभावेन सुप्त (वस्तु-उपलब्धि रहित) जैसा होता है, इसलिए संशय रूप अज्ञान (की स्थिति ही) . __ (किन्तु) वही (चित्त) जब भूतार्थ (सद्भूत पदार्थ) का ग्रहण तथा अभूतार्थ (असद्भूत पदार्थ) का त्याग करने की ओर अभिमुख होता है और सत्पदार्थ की हेतु व उपपत्ति के आधार पर व्यापार युक्त (सचेष्ट होता हुआ अमोघ) (सार्थक, अनिर्णय की स्थिति से पार होकर, निर्णय की ओर अग्रसर) हो जाता है, तो वही 'ईहा' है।] व्याख्याः- जो चित्त या मन अनेकार्थालम्बन वाला होता है, अर्थात् अनेक अर्थों की प्रतीति में आन्दोलित (किसी एक पर स्थिर नहीं, अस्थिर) होता है, इसीलिए वह 'अपर्युदास-परिकुंठित' होता है। पर्युदास यानी निषेध, अपर्युदास यानी अनिषेध / अनिषेध शब्द का उपलक्षण से यहां अर्थ 'अबोधि' (अस्तित्व साधक का अभाव) अभिप्रेत है, अतः अपर्युदास यानी निषेधाभाव, उससे परिकुंठितजड़ीभूत, सर्वथा वस्तु सम्बन्धी निश्चय के अभाव को प्राप्त होता है। [तात्पर्य यह है कि इस स्थिति में न तो किसी वस्तु का साधक और न ही बाधक प्रमाण स्थिरता में आता है, इसलिए चित्त कभी इस वस्तु की सत्ता की ओर तो कभी दूसरी वस्तु की सत्ता की ओर आन्दोलित, अस्थिर बना रहता है, कोई निर्णय ले नहीं पाता।] अधिक क्या कहें- (शेते इव)। वह (चित्त) मानों सोया हुआ हो जाता है। उसे सर्वात्मना (पूर्ण रूप से) कुछ भी ज्ञान नहीं हो पाता, क्योंकि वस्तु की प्रतिपत्ति (निर्णयात्मक उपलब्धि) नहीं हो पाती। इस प्रकार के चित्त की स्थिति ‘संशय' कही जाती है, वह अज्ञान रूप ही है, Ma 268 -------- विशेषावश्यक भाष्य --
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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