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________________ उपकार: संस्काराधानरूपो यस्य तत् कृतश्रुतोपकारं, यज्ज्ञानमिदानीं तु व्यवहारकाले तस्य पूर्वप्रवृत्तस्य संस्काराधायकश्रुतस्याऽनपेक्षमेव प्रवर्तते तत् श्रुतनिश्रितमुच्यते, न त्वक्षराभिलापयुक्तत्वमात्रेणेति भावः // 168 // एतदेव भावयन्नाह पुव्वं सुयपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयाईयं / तं निस्सियमियरं पुण अणिस्सियं मइचउक्कं तं॥१६९॥ [संस्कृतच्छाया:- पूर्वं श्रुतपरिकर्मितमतेर्यत् सांप्रतं श्रुतातीतम्। तद् निश्रितमितरत् पुनरनिश्रितं मतिचतुष्कं तत्॥] व्यवहारकालात् पूर्वं यथोक्तरूपेण श्रुतेन परिकर्मिता-आहितसंस्कारा मतिर्यस्य स तथा तस्य साध्वादेर्यत् सांप्रतं व्यवहारकाले श्रुतातीतं श्रुतनिरपेक्षं ज्ञानमुपजायते तच्छु तनिश्रितमवग्रहादिकं सिद्धान्ते प्रतिपादितम् / इतरत् पुनर श्रुतनिश्रितम्, तच्चौत्पत्तिक्यादिमतिचतुष्कं द्रष्टव्यम्, श्रुतसंस्कारानपेक्षया सहजत्वात् तस्य॥ सभी श्रुतनिश्रित है। आपको (अपनी ग़लती) यदि नहीं मालूम हो तो हम ही बता देते हैं, (ध्यान से) सुनें- (यत् श्रुतकृतोपकारम्) / श्रुत दो प्रकार का है- परोपदेश व आगमग्रन्थ / व्यवहार-काल से पूर्व, जिस (ज्ञान) का उस श्रुत से संस्कार-आधान रूप उपकार किया जा चुका हो, ऐसा ज्ञान, अब यानी व्यवहार-काल में जो पूर्वप्रवृत्त संस्कार-आधान करने वाले 'श्रुत' की अपेक्षा नहीं रखते हुए ही प्रवृत्त होता है, वह ज्ञान 'श्रुतनिश्रित' कहलाता है, किन्तु मात्र इस आधार पर कि 'वह अक्षर-लाभ से युक्त है' वह ज्ञान श्रुतनिश्रित नहीं कहलाता- यह तात्पर्य है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 168 // - पूर्वोक्त कथन को ही (और अधिक स्पष्ट करने की दृष्टि से) आगे बढ़ाते हुए कह रहे हैं (169) पुव्वं सुयपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयाईयं / तं निस्सियमियरं पुण अणिस्सियं मइचउक्कं तं // [(गाथा-अर्थः) पूर्व में श्रुत से संस्कारित 'मति' वाला जो ज्ञान, वर्तमान में श्रुतातीत (श्रुतनिरपेक्ष) रूप में प्रवृत्त होता है, वह 'श्रुतनिश्रित' होता है, बाकी जो मतिचतुष्क (औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियां) तो अश्रुतनिश्रित होता है।] व्याख्याः- व्यवहार-काल से पूर्व में पूर्वोक्त स्वरूप वाले श्रुत के द्वारा परिकर्मित अर्थात् संस्कारित मति वाले जिस साधु आदि का वर्तमान में जो श्रुतातीत यानी श्रुतनिरपेक्ष ज्ञान उत्पन्न होता है, उस अवग्रह आदि ज्ञान को आगम में श्रुतनिश्रित (कहकर) प्रतिपादित किया गया है। इससे अन्य-भिन्न ज्ञान अश्रुतनिश्रित है जो औत्पत्तिकी आदि मति-चतुष्टय है- ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि वही श्रुतसंस्कार की अपेक्षा नहीं रखते हुए सहज रूप से उत्पन्न होता है। Mi ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 247 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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