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________________ आगमे मतिज्ञानं द्विधा प्रोक्तम्- श्रुतनिश्रितमवग्रहेहादिचतुष्कम्, अश्रुतनिश्रितं चौत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयम्। ततश्च सूरिरित्थं / पराभिप्रायमाशङ्कते- अथैवं परो ब्रूयात्- आगमे श्रुतनिश्रितत्वेनापि मतिज्ञानस्य भणनात् श्रुतात् श्रुततोऽक्षरात्मकादसौ स्थाणुपुरुषादिपर्यायविवेको मतः, न बुद्धेर्न मतेः सकाशात्, तस्याः स्वयमनक्षररूपत्वात्। अत्रोत्तरमाह- 'जइ सो इत्यादि'। यदि हन्त! स स्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेकः श्रुतव्यापारः, तीवग्रहं मुक्त्वा किमन्यद् मतिज्ञानम्? न किञ्चिदित्यर्थः। यदि स्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेकोऽक्षरात्मकत्वात् श्रुतव्यापार इष्यते, तदेहाऽपायादयो मतिभेदाः सर्वेऽप्यक्षरात्मकत्वात् श्रुतत्वमापन्नाः, इत्यतोऽक्षराऽभिलापरहितमवग्रहं मुक्त्वा शेषस्येहादिभेदभिन्नस्य सर्वस्याऽपि मतिज्ञानस्याऽभावप्रसङ्ग इति भावः॥ इति गाथार्थः॥१६४॥ अथाऽन्यथा परस्य वचनमाशङ्कय दूषयितुमाह अह सुयओ वि विवेगं कुणओ न तयं सुयं सुयं नत्थि। जो जो सुयवावारो अन्नो वि तओ मई जम्हा॥१६५॥ .. व्याख्याः- आगम में मतिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है- श्रुतनिश्रित, जैसे ईहा आदि चार, तथा अश्रुतनिश्रित, जैसे औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियां। अब आचार्य (भाष्यकार) (उक्त मति-भेद के आधार पर) पूर्वपक्षी की ओर से संभावित या अभिप्रेत आशंका को ध्यान में रखकर कह रहे हैं- यदि पूर्वपक्षी इस प्रकार कहे कि आगम में तो मतिज्ञान को श्रुतनिश्रित भी कहा है, तो श्रुत से यानी अक्षरात्मक (से निश्रित) मतिज्ञान से स्थाणु व पुरुष आदि पर्याय का विवेक होना मान लेते हैं, न कि बुद्धि यानी मति से, क्योंकि वह तो अनक्षर रूप है। (इस प्रकार पूर्व गाथा में दिया गया दोष दूर हो जाता है।) उक्त आशंका का प्रत्युत्तर दे रहे हैं- (यदि सः)। अरे दया के पात्र! (अर्थात् तुम्हारे अज्ञान पर तरस आती है!) स्थाणु व पुरुष आदि के पर्याय सम्बन्धी विवेक को यदि श्रुतव्यापार के रूप में मान रहे हो, तब तो अवग्रह से अतिरिक्त कुछ और मतिज्ञान क्या रहा? अर्थात् कुछ भी नहीं रहा। तात्पर्य यह है कि स्थाणु व पुरुष आदि पर्याय सम्बन्धी विवेक अक्षरात्मक है, इसलिए उसे श्रुत का व्यापार स्वीकार कर रहे हैं, तब तो ईहा, अपाय आदि सभी मति-भेदों को भी अक्षरात्मक होने से 'श्रुत' रूप मानेंगे, और ऐसी स्थिति में अक्षराभिलाप रहित मात्र अवग्रह (तो मतिज्ञान रहेगा, उक्त) के अतिरिक्त ईहादि भेद युक्त मतिज्ञान का अभाव हो जाएगा || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 164 // अब भाष्यकार पूर्वपक्षी के कथन में अन्य प्रकार से भी दोष दिखा रहे हैं - (165) अह सुयओ वि विवेगं कुणओ न तयं सुयं सुयं नत्थि। जो जो सुयवावारो अन्नो वि तओ मई जम्हा // Ma242-------- विशेषावश्यक भाष्य -----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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