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________________ एवं धणिपरिणामं सुयनाणं उभयहा मइन्नाणं। जं भिन्नसहावाई ताई तो भिन्नरूवाई॥१५०॥ [संस्कृतच्छाया:- एवं ध्वनिपरिणामं श्रुतज्ञानमुभयथा मतिज्ञानम्। यद् भिन्नस्वभावे ते ततो भिन्नरूपे॥] एवं प्रागुक्तप्रकारेण केवलाऽभिलाप्यार्थविषयत्वात् सर्वमपि श्रुतज्ञानं ध्वनिपरिणाममेव, ध्वनेः शब्दस्य परिणमनं विपरिवर्तनं परिणामो यत्र तद् ध्वनिपरिणामं भवत्येव, श्रुतानुसारित्वेनोत्पन्नमेव ह्येतदिष्यते, श्रुतं च संकेतकालभाविपरोपदेशरूपः, श्रुतग्रन्थरूपश्च द्विविधः शब्दोऽत्राऽधिकृतः, तदनुसारेण चोत्पन्ने ज्ञाने ध्वनिपरिणामो भवत्येवेति। मतिज्ञानं तूभयथाऽपि भवति- शब्दपरिणामम्, अशब्दपरिणामंच, अभिलाप्यानभिलाप्यपदार्थविषयं ह्येतत् / ततश्च श्रुतानपेक्षस्वमत्यैव विकल्प्यमानेष्वभिलाप्येषु ध्वनिपरिणामोऽस्मिन्नपि प्राप्यते। अनभिलाप्यविषयतायां तु नासौ तत्र लभ्यते, अनभिलाप्यपदार्था हि स्वयमेव बुध्यमाना अपि वाचकध्वनेरभावाद् विकल्पयितुं, परस्मै प्रतिपादयितुं वा न शक्यन्ते, यथा नालिकेरद्वीपाऽऽयातस्य वढ्यादयः क्षीरेक्षु-गुड-शर्करादिमाधुर्यतारतम्यादयो वा, इति कुतस्तद्विषयतायां ध्वनिपरिणाम:?। अभिलाप्यपदार्थेभ्योऽनन्तगणाश्चाऽनभिलाप्याः सन्ति। ततोऽभिलाप्याऽनभिलाप्यवस्तुविषयत्वाच्छब्दाऽशब्दंपरिणामं मतिज्ञानमिति स्थितम्। (150) ... एवं धणिपरिणामं सुयनाणं उभयहा मइन्नाणं / जं भिन्नसहावाइं ताई तो भिन्नरूवाइं॥ [(गाथा-अर्थः) इस प्रकार श्रुतज्ञान ध्वनिपरिणाम (होता) वाला है, किन्तु मतिज्ञान (ध्वनि, अध्वनि) दोनों परिणाम वाला है। चूंकि इस प्रकार ये भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले हैं, इसलिए भिन्न-भिन्न रूप वाले भी हैं। ___ व्याख्याः- इस प्रकार पूर्वोक्त रीति से यह सिद्ध हुआ कि मात्र अभिलाप्य पदार्थों को विषय करने वाला समस्त श्रुतज्ञान ध्वनिपरिणाम रूप ही होता है, क्योंकि जहां ध्वनि यानी शब्द का परिणमन हो वह ध्वनिपरिणामरूप होता ही है और ऐसा होना इसलिए माना गया है क्योंकि वह श्रुतानुसारी रूप में उत्पन्न होता है। यहां 'श्रुत' से तात्पर्य लिया गया- संकेतकालीन परोपदेश रूप (शब्द) और ग्रन्थ रूप (शब्द)- इस प्रकार द्विविध शब्द / अतः ऐसे श्रुत का अनुसरण करने वाले ज्ञान में ध्वनिपरिणाम होता ही है। किन्तु मतिज्ञान दोनों प्रकार का होता है- शब्दपरिणामी और अशब्दपरिणामी भी, क्योंकि यह अभिलाप्य व अनभिलाप्य- दोनों पदार्थों को विषय करता है। अतः श्रुत की अपेक्षा न रखते हुए, स्वमति से ही, जो अन्तर्विकल्प में अभिलाप्य पदार्थ आते हैं, उनमें ध्वनिपरिणमन प्राप्त होता है। किन्तु यदि वहां विषयभूत पदार्थ अनभिलाप्य होते हैं तब ध्वनिपरिणमन नहीं होता, क्योंकि अनभिलाप्य पदार्थ स्वतः ज्ञात होकर भी -चूंकि उनकी वाचक ध्वनि का अभाव हैइसलिए, विकल्प-योग्य नहीं होते, और दूसरे को प्रतिपादन करने योग्य भी नहीं हो पाते, जैसे कोई नारिकेल (नारियल-बहुलता वाले) द्वीप से आया हो, उसके लिए (पूर्णतः अज्ञात) वह्नि (आग) आदि, ----- विशेषावश्यक भाष्य --------227 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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