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________________ [संस्कृतच्छाया:-कुत एतावत्मात्रा भावश्रुतमत्योः पर्याया येषाम् / भाषतेऽनन्तभागं भण्यते यस्मात् श्रुतेऽभिहितम्॥] कुतः पुनरेतावन्तो भावश्रुत-मत्योः पर्याया उपलब्धार्थविषया विशेषाः, येषां सर्वेणापि जन्मनाऽनन्तभागमेव भाषत इति प्रागुक्तम्?। अत्र गुरुराह- भण्यतेऽत्रोत्तरम्- यस्मात् सूत्रे आगमे वक्ष्यमाणमभिहितम्, तस्मात्तयोरेतावन्तः पर्यायाः॥ इति गाथार्थः // 140 // किं तत् सूत्रेऽभिहितम्? इत्याह पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं। पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुयनिबद्धो॥१४१॥ [संस्कृतच्छाया:- प्रज्ञापनीया भावाः अनन्तभागस्तु अनभिलाप्यानाम्। प्रज्ञापनीयानां पुनः अनन्तभागः श्रुतनिबद्धः॥] प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्त इति प्रज्ञापनीया वचनपर्यायत्वेन श्रुतज्ञानगोचरा इत्यर्थः। के? भावा ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकान्तर्निविष्टभू भवन-विमान-ग्रह-नक्षत्र-तारकाऽर्केन्द्रादयस्ते सर्वेऽपि मिलिताः। किम्? इत्याह- अनन्ततम एव भागे बर्तन्ते। केषाम्?, अत्राह __ [(गाथा-अर्थः) भावश्रुत और मतिज्ञान के इतने अधिक (अनन्त आदि) पर्याय किस कारण से कहे जाते ( या माने जाते) हैं कि (वक्ता, सम्पूर्ण जीवन में भी) उनके अनन्तवें भाग को ही बोल पाता है? (उत्तर-) ऐसा इसलिए कहा (या माना) जाता है क्योंकि श्रुत (आगम) में वैसा कहा गया है।] व्याख्याः- भावश्रुत व मतिज्ञान के द्वारा उपलब्ध पदार्थों की विशेष अवस्था रूप इतने (अधिक) पर्याय किस कारण से हैं जो यह पहले कहा गया है कि पूरा जन्म व्यतीत कर भी वक्ता उनका अनन्तवां भाग ही बोल पाता है? यहां गुरु ने (शंका के समाधान हेतु) उत्तर दिया- (यस्मात्)। चूंकि सूत्र या आगम में कहा गया है- जिसका इस ग्रन्थ में भी आगे की गाथा में निरूपण किया जा रहा है- अतः उनके इतने (अधिक, अनन्त) पर्याय माने गए हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 140 // (प्रश्न-) तो फिर सूत्र (या आगम) में क्या गया हैं? इसके उत्तर में कह रहे हैं (141) पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं / पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुयनिबद्धो // __ [(गाथा-अर्थः) प्रज्ञापनीय (अभिलाप्य) पदार्थ अनभिलाप्य पदार्थों के अनन्तवें भाग प्रमाण होते हैं, और जो श्रुत-निबद्ध (हो पाया) है, वह प्रज्ञापनीय (अभिलाप्य) पदार्थों का अनन्तवां भाग ही है।] व्याख्याः-जो प्रज्ञापित किये जाएं, प्ररूपित किए जाएं-वे पदार्थ प्रज्ञापनीय अर्थात् वचनपर्याय होकर श्रुतज्ञानगोचर होते हैं। वे कौन हैं? (उत्तर है-) ऊर्ध्वलोक, अधोलोक व मध्यलोक में विद्यमान पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, तारे, सूर्य, इन्द्र आदि जितने भी पदार्थ हैं, उन सभी को मिलाकर (भी देखें), तो Ma 216 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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