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________________ [ संस्कृतच्छाया:- तीर्यन्ते न वक्तुं श्रुतोपलब्धाः बहुत्वभावात् / शेषोपलब्धभावाः स्वाभाव्य-बहुत्वतोऽभिहिताः॥] . सर्वेऽपि श्रुतोपलब्धा भावा न तीर्यन्ते न पार्यन्ते वक्तुम्। 'जे' इति पूर्ववदेव। कुतस्ते वक्तुं न पार्यन्ते?, इत्याह- बहुत्वभावाद् बहुत्वसद्भावादेवेत्यवधारणीयम्, न तु तत्स्वाभाव्यादित्यभिप्रायः। 'सेसोवलद्धभावा साभव्वत्ति' / शेषं श्रुतादन्यत् प्रस्तुतं मतिज्ञानं, समानवक्तव्यताप्रस्तावलब्धानि मत्यऽवधि-मन:पर्याय-केवलानि वा शेषाणि तेन तैर्वा उपलब्धा ज्ञाता: शेषोपलब्धास्ते च ते भावाश्चेति समासः, स्वाभाव्यादेवाऽनभिलाप्यात्मकत्वादेव न तीर्यन्ते भाषितुम्॥ आह- नन्वेते यथाऽनभिलाप्यत्वादभिधातुं न शक्यन्ते, तथा बहुत्वादपि, तत् किमित्यनभिलाप्यस्वभावत्वमेवैकमत्र हेतुत्वे नोच्यते? / सत्यम्, किन्त्वभिलाप्यत्वे सति बहुत्वाऽल्पत्वचिन्ता क्रियमाणा विभ्राजते, ये तु मूलत एवाऽनभिलाप्यास्तेषु बहुत्वलक्षणो हेतुरुच्यमानोऽपि निष्फल एव, अनभिलाप्यात्मकत्वेनैवाऽभिधानाशक्यत्वस्य सिद्धत्वादिति॥ किञ्च, 'बहुत्तओऽभिहियं त्ति' बहुत्वाच्छेषोपलब्धा भावा यथा वक्तुं न शक्यन्ते तथा 'कह मइसुओवलद्धा तीरन्ति न भासिउं, बहुत्ताओ' इत्याद्यनन्तरगाथायामभिहिता एव, इति किं बहुत्वहेतूपन्यासेन?, पौनरुक्त्यप्रसङ्गात् / शेषज्ञानेषु मध्ये मतिरेव स [(गाथा-अर्थः) श्रुतज्ञान से उपलब्ध समस्त पदार्थों को कह पाना इसलिए अशक्य है क्योंकि उनकी बहुलता है। शेष (ज्ञानों-मति, अवधि, मनःपर्यय व केवल) ज्ञानों द्वारा उपलब्ध पदार्थ इसलिए अनभिलाप्य हैं क्योंकि उनका वैसा स्वभाव और (उससे जुड़ी उनकी) बहुलता है।] व्याख्याः- सभी श्रुतोपलब्ध पदार्थ बोले नहीं जा सकते। गाथा में आया 'जे' पद पूर्ववद् (आलंकारिक) है (उसका कोई अर्थ नहीं है)। वे क्यों नहीं बोले जा सकते? उत्तर दिया- (बहुत्वभावात्)। तात्पर्य यह है कि नहीं बोले जा सकने में उनकी बहुलता ही कारण है, स्वभाव कारण नहीं है। (शेषोपलब्धाः) शेष यानी श्रुतज्ञान से अवशिष्ट, (कौन सा ज्ञान?, उत्तर-) मतिज्ञान ग्राह्य है, अथवा सामान्यतया पांचों ही ज्ञानों का वर्णन किया जा रहा है, इसलिए 'शेषोपलब्ध' पद से अवधि, मनः पर्यय व केवल ज्ञान से उपलब्ध पदार्थों का भी ग्रहण कर सकते हैं। 'शेषोपलब्ध' जो भाव यानी पदार्थ- यहां (कर्मधारय) समास है। (तब अर्थ हुआ-) वे समस्त पदार्थ अपने अनभिलाप्य स्वभाव के कारण ही बोले नहीं जा सकते। यहां किसी ने प्रश्न किया- यदि (शेषोपलब्ध) अनभिलाप्य स्वभाव के ही कारण कहे नहीं जा सकते, उसी तरह बहुलता के कारण भी नहीं कहे जा सकते (ऐसा गाथा में तो कहा किन्तु उनके अनभिलाप्य होने में मात्र वैसे स्वभाव को ही (उपर्युक्त व्याख्यान में) कारण बताया, ऐसा क्यों? (उत्तर दे रहे हैं-) आपका कहना सही है। किन्तु अभिलाप्य होने पर ही उनके बहुत्व व अल्पत्व का विचार किया जाना उचित ठहरता है, किन्तु जो मूलतया (मौलिक रूप से, अपने स्वभाव में ही) अनभिलाप्य हैं, उनके सम्बन्ध में बहुत्वरूप हेतु निष्फल ही है, क्योंकि अनभिलाप्यता रूप स्वभाव के कारण ही उनका नहीं कहा जा पाना सिद्ध है। दूसरी बात, (बहुत्वाद् अभिहिताः-) शेषोपलब्ध भाव बहुलता के कारण नहीं कहे जा सकतेयह बात पूर्व की (138वीं) गाथा में कह ही दी गई है, पुनः उसे कहना पुनरुक्ति दोष होगा। (शंका) Vie 214 -------- विशेषावश्यक भाष्य --
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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