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________________ स्थानाङ्ग (4) समवायाङ्ग (5) भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति), (6) ज्ञाताधर्मकथा (7) उपासकदशा (8) अन्तकृत्दशा (9) अनुत्तरौपपातिकदशा (10) प्रश्नव्याकरण (11) विपाक (12) दृष्टिवाद (द्र. समवायांग, सम. 136) / श्रुतपुरुष के विविध अङ्ग : द्वादशाङ्ग इन आगमों को 'अङ्ग' कहना इसलिए सार्थक है कि ये श्रुतपुरुष के विविध प्रमुख अङ्ग हैं। अभिदानराजेन्द्र कोश (भा. 1, पृ. 38) नन्दीसूत्र वृत्ति, (2-3) एवं नन्दीसूत्र चूर्णि (पृ. 47) के अनुसार 2 पांव, 2 जंघा, 2 ऊरु, 2 गात्रार्द्ध (कटि), 2 बाहु 1 ग्रीवा, और 1 मस्तक- इस प्रकार कुल बारह अंगों के रूप में उक्त द्वादशांग को मानना चाहिए। श्रुतपुरुष के अंग में प्रविष्ट होने से इन आगमों को अंगप्रविष्ट' भी कहा जाता है। 'पूर्व साहित्यः उक्त द्वादशांग के अतिरिक्त 'पूर्व' नाम से प्रसिद्ध आगमों' का निर्देश भी शास्त्रों में प्राप्त होता है। पूर्वो की संख्या चौदह मानी गई है। (समवायांग, सम. 14) / आवश्यक नियुक्ति (गा. 292-293) तथा उसके टीकाकार मलयगिरि (पृ. 48) के अनुसार गणधरों द्वारा इनकी रचना द्वादशांगी से पूर्व की गई थी और इनका आधार तीर्थंकर-उपदिष्ट तीन मातृका पद (उप्पनेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा, अर्थात् द्रव्य उत्पन्न होता है, नष्ट होता है, किन्तु ध्रुव-नित्य रहता है) थे। ये विशेषतः प्रौढ़ विद्वानों के लिए बोध्य थे, साधारण जनों के लिए दुर्गम थे, अत: (स्त्री, बालक आदि) साधारण जनों के लाभार्थ, 'पूर्व'-रचना के वाद द्वादशांग की प्राकृत में रचना की गई (द्र. विशेषावश्यक भाष्य, गा. 551, दशवैकालिक वृत्ति, पृ. 203) / प्रभावक चरित्र (श्लोक-113-114) एवं दशवैकालिक वत्ति के अनुसार इन 'पर्वो की भाषा संस्कत थी। एक मान्यता यह भी है कि भगवान महावीर.से पूर्व भी, 'पूर्व' साहित्य आगम' के रूप में उपलब्ध था, अतः उसे 'पूर्व' कहा जाता है। कल्पसूत्र (सू. 203) के अनुसार भगवान् महावीर के सभी गणधर चतुर्दशपूर्वज्ञाता थे। नन्दीसूत्र (सू. 101) में 'पूर्वो' को बारहवें अंग दृष्टिवाद (के चतुर्थ विभाग 'पूर्वगत') के अन्तर्गत निरूपित किया गया है। सम्भवतः 'पूर्व' साहित्य व द्वादशांग को परस्पर समन्वित करने का यह प्रयास प्रतीत होता है। पूर्वसाहित्य की महत्ता इसी से स्पष्ट हो जाती है कि इतिहास में ज्ञानी आचार्यों की द्वादशांगधारी या अंगधारी श्रेणी के अलावा, 'पूर्वधर' श्रेणी भी पृथक् रूप में प्राप्त होती है। पूर्वधर ज्ञानियों को 'श्रुतकेवली' भी कहा जाता था। उन्हें 'जिन' (या तीर्थंकर) के समान आदर प्राप्त था (द्र. दशाश्रुत, 8, परि सू. 97) / अंगबाह्य आगमों में अनेक आगमों की रचना पूर्वधरों द्वारा की गई है। जैसे- (1) दशाश्रुत स्कन्ध, (2) व्यवहार, (3) बृहत्कल्प, निशीथ -ये चारों आगम चतुथर्दशपूर्वी भद्रबाहु द्वारा 'प्रत्याख्यान नामक नौवें' 'पूर्व' से निर्मूढ (रचित) हैं (दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति, गा. 1, 5-6, पंचकल्प भाष्य, गा. 11) / इसी प्रकार, आचारांग- वृत्ति (290) व नियुक्ति (गा. 288-291) के अनुसार आचारचूला' की रचना चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु द्वारा की गई है। मूलसूत्र दशवकालिक की रचना चतुर्दशपूर्वी शय्यंभव द्वारा रचित है, और इसके अनेक अध्ययन विविध 'पूर्वो' से उद्धृत (नियूढ) किये गए हैं। (दशवैकालिकनियुक्ति, गा. 16-17) / उत्तराध्ययन के दूसरे अध्ययन को भी कर्मप्रवाद 'पूर्व' के 17वें प्राभृत से उद्धृत माना जाता है (उत्तराध्ययन-नियुक्ति, गा. 69) / इसके अतिरिक्त, कर्मसाहित्य भी जो उपलब्ध है, वह अधिकांशतः पूर्वोद्धृत माना जाता है। ROORB0BARB0BROR [24] RO08RROROSce
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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